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पालेंगे। जिस काल निवृत्ति अवस्था प्रवृत्ते, तिस काल इनि मुनिनिके ज्ञानविषे ज्ञानहीकू आचरणा यह शरण है। ते मुनि तिस ज्ञानविर्षे लीन भये संते परम उत्कृष्ट अमृतकू आप स्वयं भोगवे हैं।
भावार्थ--सर्व कर्मका त्याग भये ज्ञानका बडा शरण है । तिस ज्ञानमें लोन भये सर्व आकुलता रहित परमानंदका भोगना होय है, याका स्वाद ज्ञानी ही जाने है । अज्ञानी कषायी जीव कर्महीकू सर्वस्व जोनि तामें लीन है, ज्ञानानंदका स्वाद नाहीं जाने है। आगे ज्ञानकू मोक्षका कारण साधे हैं । गाथा
परमट्टो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी पाणी। तहमिटिदो समादे मुणित पानति शिवाणं ॥७॥
परमार्थः खलु समयः शुद्धो यः केवली मुनिर्ज्ञानी ।
तस्मिन् स्थिताः स्वभावे मुनियः प्राप्नुवंति निर्वाणं ॥७॥ आत्मख्यातिः-शानं मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्म गोरबंयनुत्ते सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तः तनु सकलकर्मादिजात्यंतरविविक्तविजातिमात्रः परमार्थ आत्मेति यावत् स तु युगादेकोभावप्रवृत्तज्ञानगमनतया समयः । सकलनयपक्षासकीणेकज्ञानतया शुद्धः । केवल चिन्मात्रवस्तुतया केवली । मननमात्रभावमात्रतया मुनिः स्वयमेवज्ञानतया ज्ञानी। स्वस्य भवनमात्रतया स्वस्वभावः स्वतश्चितो भवनमात्रता सहावो वेति शब्दभेदेऽपि न च वस्तुमेदः।
अब शानं विध्यापयति
अर्थ-निश्चय करि परमार्थरूप समय कहिये जीवनामा पक्षका यह स्वरूप है, जो शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है ए जाके नाम है। तिल स्वभावविवे जे मुनि तिष्ठे हे ते मुनि निर्वा. जर ण प्राप्त होय हैं।
टीका ज्ञान ही मोक्षका हेतु कहिये कारण है, जाते अज्ञान शुभ अशुभ कर्मरूप है, ताके 5