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टीका - जातें यह ज्ञानरूप आत्मा है, सो आप स्वयमेव ज्ञानपणाकरि विश्व कहिये सर्वपदार्थ, 卐 तिनिकूं सामान्य विशेषकर जाननेका ज्ञानस्वभावरूप हैं, तौऊ अनादिकालतें अपना पुरुषार्थकरि फ किया जो अपराध, ताकरि प्रवर्त्या जो कर्म, सो ही भया मल, ताकरि अच्छन्न कहिये आच्छा
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दित है - व्याप्त है— मलिन है । तिस भावकरि बंधावस्थाविषै सर्वप्रकार सर्वज्ञेयाकाररूप जो अपना स्वरूप, ताकूं नाहीं जानता संता अज्ञानभावकरिही यह आप इस प्रकार तिष्ठे है । तातें यह निश्चय भया- जो कर्म है, सो स्वयमेव आप ही बंधस्वरूप है । यातें कर्म स्वयमेव आप हो 卐 पणारूप जानि प्रतिषेध्या है।
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भावार्थ - इहां ज्ञानशब्दकरि आत्माहीका ग्रहण कीया है। सो यह ज्ञानस्वभावकरि तौ फ सर्वका देखनजाननहारा है । परंतु अनादितें आप अपराधी है, तातें कर्म बंधे है, ताकरि आच्छा卐 दित है सो अपना संपूर्णरूपकं न जानता संता अज्ञानरूप भया संता आप तिप्ठे है । ताकै कर्म आप ही बंधे है, कर्मकू आप तौ लेकरि नाहीं बांधे है, आप तो अपने अज्ञानभावरूप परिणमै है, 5 अर कर्म आप स्वयमेव बंघरूप होय है, तातें कर्मका प्रतिषेध है । आगे, कर्मके मोक्षका कारण जे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र, तिनिका तिरोधायिभावपणा दिखावे हैं । इनिकूं प्रगट न होने देना यह 5 तिरोधायिभावपणा है । गाथा
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सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहिदं । तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिद्वित्ति णादव्वो ॥१७॥
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णाणस्स पडिणिबद्धं अरणाणं जिणवरे हि परिकहिदं । तस्सोदयेगा जीवो अण्णाणी होदि यादव्वो ॥ १८॥
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