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षेध्या है।
कपाय है, सो आप स्वयं कर्म ही है, ताके उदयही 'ज्ञानके अचारित्रपणा है। यातें कर्मके, लपप 5 स्वयमेव मोक्षका कारण जे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र, तिनिका तिरोधायिभावपणा है, तातें कर्म प्रति"
भावार्थ-ज्ञानके मोक्षका कारणपणा स्वभाव सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्र हैं, तिनि तीनीनिका# प्रतिपक्षी कर्म मिथ्यात्व अज्ञान कषाय हैं, ते तीनूनि प्रगट न होने देय हैं। तातें कर्मकै मोक्ष- .. " का कारणका दिरोगाविसापा है। तातें कर्मका प्रतिषेध है। अशुभकर्मके तौ मोक्षका कारण
कहा ? काधकपणा प्रसिद्ध ही है। परंतु शुभकर्म भी बंधरूप ही है । तातें यह भी कर्मसामान्य- ।। में प्रतिषेधरूप ही जानना । आगे इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शालविक्रीडितच्छन्दः संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कमैत्र मोक्षार्थिना संन्यस्तै सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षास्य हेतुर्भवन्नै फर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥१०॥
अ-मोक्षके अर्थि पुरुषकू यह समस्तकर्म ही त्यागने योग्य है, ऐसे तिस समस्त ही कमकू छोडे संते पुण्य अथवा पापकी कहा कथा है ? कर्मसामान्यमें दोऊ आय गये । ऐसे समस्तकर्मका - त्याग भये ज्ञान है सो सम्यक्त्व आदिक जो अपना स्वभाव, तिसरूप होनेते मोक्षका कारण होता " संता कर्मरहित अवस्थातै प्रतिबद्ध उद्धत है रस जाका ऐसा आपआप दवडया आवै है। '
भावार्थ-कर्मको पटके ज्ञान आपआप अपना मोक्षका कारणस्वभावरूप भया संता प्रगटे है, फेरि कौन रोके ? आगै आशंका उपजे है, जो अविरतसम्यग्दृष्टि आदिके जेते कर्मका उदय रहे, । 5 तेते ज्ञान मोक्षका कारण कैसे ? कर्म अर ज्ञान दोऊ लार कैसे रहे ? ताका समाधानकू काव्य
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिनिस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्वावन्न काचित्क्षातिः।। किन्त्वत्रापि सल्लसत्यवशतो यत्कर्मपन्धाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ॥११॥
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