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"ताकरि मूलते उन्मूल कहिये उपाडिकरि ? कैसा है यह कर्म ? पीया है मोह जाने। याहीते 5 प्रभ्रमके रसके भारतें शुभ अशुभका भेदरूप उन्मादकू नचावता संता है।
__ भावार्थ-ज्ञानज्योति है सो अपना प्रतिबंधक कर्म था सो भेदरूप होय नृत्यकरे था, ज्ञान 'भुलावा दे था, ताकू अपनी शक्तिकरि बिगाडि आप अपना संपूर्ण रूपसहित प्रकाशरूप भया। - इहां आशय ऐसा जानना, कर्म सामान्यकरि एक ही है, तयापि शुभ अशुभ दोय भेदरूप स्वांग - करी रंगभूमीमें प्रवेश कीया था, तार्क ज्ञान यथार्थ एक जानि लिया, तब कर्म रंगभूमीतें निकसी गया, ज्ञान अपनी शक्तिकरि यथार्थप्रकाशरूप भया, ऐसें जानना । ऐसें कर्म है सो: "नृत्यके अखाडे मैं पुण्यपापरूपकरि दोय नृत्यकारिणी बनी नाचे था, सौ ज्ञान यथार्थ जानी लिया. मजो, कर्म एकही है, तब एकरूपकरि निकसि गया, नृत्य करता रह गया ।
सर्वया तेईसा आश्वकारण, रूप लवादसुभेद विचारि गिने दोऊ न्यारे । पुण्य अरु पाप शुभाशुभभावनि बंध भये सुखदुःखकरा रे ॥ ज्ञान भये दोऊ एक लपे बुध आश्रय आदि समान विचारे ।
बंधके कारण हैं दोऊ रूप इन्हें तजि श्रीजिनमुनि मोक्ष पधारे ॥१॥ ऐसें इस समयसार ग्रंथकी आत्मख्यातिनाम टीकाकी बचनिकाविर्षे तीसरा पुण्यपाप नामा
अधिकार पूर्ण भया । इहांताई गाथा १६३ भई । कलसा ११२ गये।
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