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___अर्थ-जेतें कर्मका उदय है अर ज्ञानकी सम्यक् विरति नाही हे तेतें कर्मका अर ज्ञानका .. समुञ्चय कहिये एकठापणा भी कहा है, तेते या किछु हानि नाहीं है । इहां विशेष ऐसा-जो " इस आत्माविर्षे जो कर्म के उदयकी बरजोरीत आत्माके वश विना कर्म उदय होय है, सो तौ: + बंधके ही अर्थि है । बहुरि मोक्षके अर्थ तो एक परमज्ञान है, सो ही है। कैसा है ज्ञान ? कर्मत ..
आपहीते रहित है , कर्मके करनेवि आपका स्वामीपणारूप कर्तापणाका भाव नाहीं है। म भावार्थ-जेतें कर्म उदय है तेत कर्म तो अपना कार्य करे है, अर तहां ही ज्ञान है, सो .
अपना कार्य करे है, एक ही आरमामैं ज्ञान अर कर्म दोऊ एकहो रहने में भी विरोध नाहीं है। " मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञानकै जैसे विरोध है, तैसे कर्मसामान्यकै अर ज्ञानकै विरोध नाहीं है। आगै卐 कर्मका अर ज्ञानका नयविभाग दिखावे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः पज मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा शोनं न जानन्ति ये मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि सतत स्वच्छन्दमन्दोद्यमाः।
___ विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न बमै जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥१२॥ . 卐 अर्थ-जे केई कर्मनयके अवलंबनविर्षे तत्पर हैं, ताके पक्षपाती हैं, ते डुबे जाते, जे ज्ञानकुंभ
जाने ही नाहीं बहुरि जे ज्ञाननयके इच्छक हैं पक्षपाती हैं, ते भी डुबे जाते, जे क्रियाकांडको ' छोडी स्वच्छंद होई प्रभादी होय स्वरूपविर्षे मंद उद्यमी हैं बहुरि जे आप निरंतर ज्ञानरूप होते' .. कर्मतौ नाही करे हैं अर प्रमादके वश नाहीं होय है, स्वरूपमें उत्साहवान हैं ते सर्व लोकके .. 9 उपरि तरे हैं। - भावार्थ-इहां सर्वथा एकांत अभिप्रायका निषेध कीया है, जाते सर्वथा एकांतका अभिप्राय , " है, सोही मियादृष्टि है। तहां जे परमार्थभृत ज्ञानस्वरूप आत्माकू तो नाहीं जाने हैं अर व्यवहार , के दर्शनज्ञानचारित्ररूप क्रियाकांडके आडंबरहीकू मोक्षका कारण जाणि, तिसहोविः तत्पर रहे हैं, ५
ताका पक्षपात करे हैं, यह कर्मनय है । याके पक्षपाती ज्ञानकू तौ जाने नाहीं अर इस कर्मनय ही -
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