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अर्थ - रागी जीव है सो तौ कर्मकूं बांधे है, बहुरि वैराग्यकूं प्राप्त है सो जीव कर्मसू छूटे है, यहू जिनभगवानका उपदेश है । तातैं भो भव्यजीव ! तू कर्मनिविषे राग प्रीति मति करौ, रागी मति होहू ।
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स्वागताछन्दः
कर्म सर्वमपि सर्वसाधनमुशन्त्य विशेषात् ।
तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः || ४ ||
टीका - जो रागी है सो अवश्य कर्तकूं बांधे ही है । बहुरि विरक्त है सो ही कर्मतें छूटे है। ऐसा यह आगमका वचन हैं । सो यह वचन है सो सामान्य करि कर्म रागीपणाका निमित्तपणा क करि शुभ तथा अशुभ ए दोऊ हैं, तिनिक्कू अविशेष करि बंधका कारण सावे है, तातें तिनि दोऊ ही कर्म निकू निषेधे है । इस अर्थका कलशरूप काव्य है ।
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अर्थ – सर्वज्ञदेय हैं, ते सर्व ही कर्म, शुभ तथा अशुभकूं अविशेषतें बंधका कारण कहे हैं, तिस 5 कारण र सर्वही कर्म प्रतिषेध्या है । मोक्षका कारण तौ एक ज्ञान हीकूं कया है । अब की कहे हैं, जो कर्म सर्व ही प्रतिषेध्या है, तौ मुनि हैं ते कौन के शरण आश्रय मुनिपद पालेंगे ? याके निर्वाह काव्य कहे हैं ।
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शिम्ब रिणीछन्दः
निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्तं नेक न खलु मुनयः संत्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः || ५ || अथ ज्ञानहेतु साधयति -
5 प्रामृत
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अर्थ- सुकृतं कहिये शुभ आचरणरूप कर्म, बहुरि दुरित कहिये अशुभ आचरणरूप कर्म, ऐसा सर्व ही कर्मका निषेध करते संते, बहुरि नैष्कम्र्य कहिये कर्म रहित निवृत्ति अवस्थाकूं प्रवर्तते संते २५ १ मुनि हैं ते अशरण नाहीं हैं । इहां ऐसी नाहीं आशंका करनी जो ए मुनिपद काहेके आश्रय
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