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सो ही यह मोक्षका कारण है । जातें आप स्वयमेत्रहि मोक्षस्वरूप है । बहुरि यासिवाय अन्य है सो बंधका कारण है । जातें सो आप स्वयमेव बंधस्वरूप है, तातें ज्ञानस्वरूप अपना होना सो फ ही अनुभूति है, ऐसें निश्चयतें बंधमोक्षका हेतुका विधान किया है। अगे, फेरि भी पुण्यकर्मका पक्षपात करै, ताका प्रतिबोधनेके अर्थिं उत्तर कहे हैं। गाथा
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परमद्ववाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति । संसारगमगाहेदुं विमोक्षहेदुं अयागंता ॥ १० ॥ परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छति । संसारगमनहेतु' विमोक्ष हेतुमजानतः ॥ १० ॥
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आत्मख्यातिः - इह खलु केचिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसंभावितात्मलाभं मोक्षमभिलषं तोऽपि तद्ध ेतुभूतं सम्यग्दर्शन- फ ज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्रमैकाग्रयलक्षण समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि दुरं तकर्म चक्रो सरणक्लीवतया 5 परमार्थभूतज्ञानानुभवनमा सामायिकमात्मस्वभावमलभमानाः प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्यूल- 5 तमविशुद्धिपरिणामकर्माणः कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसंतुष्टचेतसः स्थूललक्ष्यतया सकलं कर्मकांडमनुन्मूलतः स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवल बंधहे तुमध्यास्य एवं व्रत नियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मवं वहेतुमप्यजानं तो मोक्षहेतुमभ्युपगच्छति । फ्र अथ परमार्थमोक्षहेतुस्तेषां दर्शयति---
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अर्थ- जीव परमार्थ वाह्य हैं, परमार्थभूतज्ञानस्वरूप आत्माकूं नाहीं अनुभवे हैं, ते जीव 5 अज्ञानकर पुण्य इष्ट करे हैं, भला मानि चाहे हैं। कैसा है पुण्य ? संसारके गमनकू कारण है, तौऊ बहुरि ते जीव कैसे हैं ? मोक्षका कारण ज्ञानस्वरूप आत्माकू नाही जानते संते पुण्यही5 कूं मोक्षका कारण माने हैं ।
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टीका -- या लोकविषै निश्चयकरि केईक जीव ऐसे हैं, जे समस्त कर्म के पक्षका नाशकरि क उपजे है आत्मलाभ कहिये निजस्वरूपका लाभ जामैं ऐसा मोक्षकूं चाहते भी हैं, तौऊ तिस फ
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