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प्राभृ
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5 आयु अशुभनाम, अशुभगोत्र ए हैं । बहुरि इनिके उदयतें प्राणीकूं इष्ट अनिष्ट भली बुरी सामग्री मिले सो है, सो ए पुद्गल के स्वभाव हैं, सो इनिका भेदतें कर्मविषै स्वभावका भेद है अर शुभ अशुभ अनुभवका भेदतें भेद है । शुभका अनुभव तौ सुखरूप स्वाद है अर अशुभका 5 दुःखरूप स्वाद है । बहुरि शुभाशुभ आश्रयका भेदतें भेद है । शुभका तो आश्रय मोक्षमार्ग है अ अशुभका आधा है ऐसा तो पक्ष है। अब थाका निषेधपक्ष कहे हैं। जो शुभ 5 अर अशुभ दोऊ जीवके परिणाम अज्ञानमय हैं, तातें दोऊका एक अज्ञान ही हेतु है । तातें 卐 हेतूका भेद कर्म में भेद नाहीं है । बहुरि शुभ अशुभ दोऊ पुद्गल के परिणाम हैं। तातें पुद्गल - क परिणामरूप स्वभाव भी दोऊका एक ही है, तातें स्वभावका अभेदतें भी कर्म एक ही है। 5 बहुरि शुभाशुभ फल सुखदुःखरूप स्वाद भी पुद्गलमय ही है, तातें स्वादका अभेदतें भी कर्म एक ही है । बहुरि शुभ अशुभ मोक्षधमार्ग कहे, ते मोक्षमार्ग तौ केवल एक जीवहीका परिणाम है 5 अर बंधमार्ग केवल एक पुद्गलहीका परिणाम है, आश्रय न्यारे न्यारे हैं, तातें बंधमार्गके आश्र तें भी कर्म एक ही हैं । ऐसें इहां कर्मके शुभाशुभ भेदका पक्षकूं गौण करि निषेध किया, जातें इहां अभेदपक्ष प्रधान है, सो अभेदपक्ष करि देखिये तब कर्म एक ही है, दोय नाहीं है फ्र 5 अब इस अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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उपजातिच्छन्दः
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हेतुस्वभावानुभवाचा सदाप्यमेदान्नहि कर्मभेदः ।
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तद्चन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ||३||
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अथोभयं कर्माविशेषेण बंधहेतु साधयति
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अर्थ- हेतु स्वभाव अनुभव आश्रय इनि च्यारीनिके सदा ही अभेदतें कर्मविषै भेद नाहीं है । तातें बंधक मार्ग आश्रय करि कर्म एक ही इष्ट किया है, मान्या है । जातें शुभरूप तथा
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