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अर्थ - जानरूप क्रिया है, सो तौ करनेरूप क्रियाविषै अंतरंग नाही भाते है । बहुरि करनेरूप किया है, सो जाननेरूप क्रियाविषै अंतरंग नाही भाते है । तातें ज्ञप्ति किया अर करोति क्रिया दोऊ भिन्न हैं । तातें यह ठहरी जो ज्ञाता है सो कर्ता नाहीं है ।
5 प्रामुख
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भावार्थ-- जिस काल ऐसे परिणमे है, जो मैं परद्रव्यकूं करूं हौं, तिस काल तौ तिस परि- 卐 मन क्रियाका कर्ता ही है । बहुरि जिस काल ऐसे परिणमे है, जो मैं परद्रव्यकूं जानू हौ, तिस काल जानन क्रियारूप ज्ञाता ही है । इहां कोई पूछे है, अविरतसम्यग्दृष्टि आदिके जेतें 5 चारित्रमोहका उदय है, तेतें कषायरूप परिणमे है। तहां कर्ता कहिये कि नाही ? ताका समाधान -- जो अविरत सम्यग्दृष्ट्यादिके श्रद्धान ज्ञानमय परद्रव्यके स्वामीपणारूप कर्तापणाका क - अभिप्राय नाहीं, अर कषायरूप परिणमन है सो उदयकी बरजोरीसृ है, ताका यह ज्ञाता है । तातें अज्ञानसंबंधी कर्तापणा याकै नाहीं है । अर निमित्तकी बरजोरीका परिणमनका फल किंचित् होय है। सो संसारका कारण नाहीं है । जैसें वृक्षकी जड कटे पीछे किंचित्काल रहे या न रहे तैसें है । फेरि दृढ करे हैं।
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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि द्वन्द्व विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्नेपध्ये वत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम् ॥५३॥ अथवा नानाट्य वां तथापि -
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अर्थ-कर्ता है सो तौ कर्मविषै निश्चयकरि नाहीं है । बहुरि कर्म है सो भी कर्तावि निश्चयकरि नाहीं है । ऐसें दोऊ ही परस्पर विशेषकर प्रतिषेधये, सब कर्ताकर्मकी कहा स्थिति होय ? नाही होय । तब वस्तुकी मर्यादा प्रगट व्यक्तरूप यह ठहरी, जो ज्ञाता तौ सवा 7 ज्ञानविषै ही है। अर कर्म है सो सदा कर्मविषै ही है । लौऊ यह मोह अज्ञान है, सो नेपथ्य- फ्र विषे कैसें नाचे है ? सो यह बड़ा खेद है । नेपथ्य कहिये शांत ललित उदाच धीर इनि च्यारि
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