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卐 आभरणनि सहित जो यह तत्त्वनिका नृत्य, ताविर्षे यह मोह कैसे नाचे है ? कर्ताकर्मभाव त ।
नेपथ्यस्वरूप नृत्यका आभूषण नाहीं, ऐसे खेदसहित वचन आचार्य ने कहा है। . भावार्थ-कर्म तो पुद्गल है, ताका कर्ता जीवकू कहिये, तौ तिनि दोऊनिकौ तौ वडा भेद
है, जीव तो पुद्गलमें नाहीं अर पुद्गल जीवमें नाहीं तब इनिके कर्तृकर्मभाव कैसा बने ? ' " तातै जीव तौ ज्ञाता है, सो ज्ञाता ही है, पुद्गलका कर्ता नाहीं । बहुरि पुद्गलकर्म है सो कर्म
ही है। तहां आचार्य खंदकारे कया है-जो ऐसें प्रगट भिन्नद्रव्य है, तौऊ अज्ञानीका ए मोह : " कैसे नाचे है ? जो मैं तो कर्ता हूं अर यह पुद्गल मेरा कर्म है, यह बडा अज्ञान है । फेरि कहे 卐हैं, जो ऐसे मोह नाचे है, तो नाचो, वस्तुस्वरूप तो जैसा है तैसा ही तिष्ठे है।
___ मन्दाक्रांताछन्दः कर्ता का भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि । ज्ञानज्योतिर्जलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चैनिश्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तमम्भीरमेतत् ॥५४||
इति जीवाजीयौ कत, कर्मवेषविमुक्ती निक्रांती।
इति समयसारच्याख्यायामात्मख्यातौ द्वितीयोऽकः । ___अर्थ-यह ज्ञानज्योति है सो अंतरंगविर्षे अतिशयकरि अपनी चैतन्यशक्तीके समूहके भारतें ॥ " अत्यंत गंभीर, जाका थाह नाही, सो ऐसे निश्चल व्यक्तरूप प्रगट भया। जैसे अज्ञानविर्षे आत्मा
कर्ता था, सो तो अब कर्ता न होय, अर याके अज्ञानतें पुद्गलकर्मरूप होय था, सो अब कर्मरूप न
होय, बहुरि जैसें ज्ञान तो ज्ञानरूप ही होय अर पुद्गल है सो पुद्गलरूप ही रहै, ऐसे प्रगट भया। । भावार्थ- आरसा ज्ञानी होय तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणामे, पुदगलकर्मका का न बने,
र बहुरि पुद्गल है सो पुद्गलरूप हो रहे, कर्मरूप न परिणमे, ऐसें आत्माकै ज्ञान यथार्थ भये दोऊ * के परिणामके निमितनैमित्तिकभाव नाही होय है, ऐसा सम्यग्दृष्टीकै ज्ञान होय है। ऐसे
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