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भावार्थ-चैतन्यका अनुभवन ऐसा है, जो याकै होते समस्त नयनिका विकल्परूप इंद्रजाल " है सो तत्काल क्लिय जाय है । आगे पूछे है जो पाते अतिकांत है दूरवर्ती है तिसका कहा जा
प्राभूत ' स्वरूप है ॥ ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं । गाथा
दोरहवि णयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो । ण दु गायपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो ॥७५॥
द्वयोरपि नपयोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिवद्धः ।
न तु नयपक्षं गृह्णाति किंचिदपि नयपक्षपरिहीनः ॥७५॥ 卐 आत्मख्यातिः-यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावययभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं ॥ पर स्वरूपमेव जानाति न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्य स्वयमेव चिहानघनभूतत्वाच्छ्र तज्ञानभूमिका
तिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृहाति तथा किल यः श्रुतज्ञानावययाभूतयोर्व्यवहार- निश्चयनपपक्षयोः क्षयोपशमविजूं भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं
जानाति न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतथा तदात्वे स्वयमेव विज्ञापनभूतत्वात श्रुत- " + शानात्मकसमस्तांतर्वहिर्जन्यरूपविकल्पभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स 卐 .. खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोनुभूतिमात्र: समयसारः।
अर्थ-जो पुरुष समय कहिये अपना शुद्धात्मा तिसते प्रतिबद्ध है आस्माकू जाने है, सो दोऊ का न ही नयका कह्याकू केवल जाने ही है । बहुरि नयपक्षकू किछू भी नाहीं ग्रहण करे है। कैसा है ,
वह पुरुष ? नयके पक्षकरि रहित है। 卐 टीका-इहां प्रथम दृष्टांत कहे हैं, जैसे केवली भगवान् सर्वज्ञ वीतराग समस्त वस्तूका ॥ .. साक्षीभूत है, ज्ञाता द्रष्टा है, सो श्रुतज्ञानके अवयवभूत जे व्यवहार निश्चयनयके पक्षरूप दोय नय की तिनिका केवल स्वरूपकू जाने ही है। बहरि काहू ही नयके पक्षकू नाही ग्रहण करे है। जाता