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1- है, जो, यह आत्मा क्रोधते उपयुक्त होय है, उपयोग कोधाकाररूप परिणमे है, तब तो कोष ही। जमय है। बहुरि मानकरि उपयुक्त होय है, तब यह आत्मा मान ही है । बहुंरि मायाकरि उपयुक्त होय ॥
है, तब माया ही है । बहुरि लोसफार उपयुतः शोश है, सब लोभ ही है।
___टीका-जो जीव है, सो कर्मविर्षे आप स्वयं नाही बंध्या संता क्रोधादिक भावकरि आप 卐 नाही परिणमै हैं, तो सो जीव अपरिणामी ही होय है, तैसें होते संसारका अभाव आवे है। .. अथवा जो ऐसा तर्क करे है, जो पुद्गलकर्म क्रोधादिक हैं, सो जीवकू क्रोधादिक भावकरि का परिणमावे हैं । तातें संसारका अभाव नाही होय है । तौ तहां दोय पक्ष पूछिये, जो पुद्गलकर्म' 15 क्रोधादिक हैं सो जीवकू आपै आप अपरिणमतेकू परिणमाये है, कि परिणमतेकू परिणामावै है ? ..
तहां प्रथम तो आप नाही परिणमता होय ताकू तो परके परिणमावनेका असमर्थपणा, जातें : 卐 आपमें जो शक्ति नाही, जो परकरि करी न जाय है । बहुरि स्वयं परिणमता होय सो परकू .
परिणमावनेवालाकू नाहीं चाहे है, जाते वस्तुको शक्ति है ते परकी अपेक्षा नाहीं करे है । अन्यमें ।
अन्य कोई शक्ति नई निपजाय सके नाहीं। तातें यह ठहरी, जो जीव है सो परिणामस्व-प्र 1. भावरूप स्वयमेव होऊ । तैसें होतें जैसे कोई मंत्रसाधक गस्डका ध्यान करता तिस गरुडभावरूप
परिणया गरुड ही है, तैसें यह जीवात्मा अज्ञानस्वभाव क्रोधादिरूप परिणया जो उपयोग तिस- 5 रूप आप स्वयमेव क्रोधादिक ही होय है । ऐसें जीवका परिणाम स्वभावपणा सिद्ध भया ।
भावार्थ-जीव भी परिणामस्वभाव है। जब अपना उपयोग क्रोधादिरूप परिणमे है, तब 卐 आप क्रोधादिक रूप ही होय है ऐसें जानना । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः स्थितेति जीवस्य निरंतराया स्वभावभृता परिणामशक्तिः।
तस्यां स्मितायां स करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्वा ॥२०॥ 卐 वाहि
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