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फ अस्त भया है भिन्न आत्माका प्रगटपणा जाके तिसपणेकरि अज्ञानमय ही भाव होय है, तिस अज्ञानमयभावके होतैं आत्माका अर परका एकपणाका निश्चय आशयकरि ज्ञानमात्र अपना आत्मस्वरूप भ्रष्ट हुवा संता परद्रव्यस्वरूप जे रागद्वेष तिनकरि सहित एक होयकरि प्रय है अहंकार जाके ऐसा भया संता अज्ञानी ऐसें माने है मैं रागी हूं, द्वेषी हूं, ऐसें रागी होय है, द्वेषी होय है । तिस रागादिस्वरूप अज्ञानमय भावतें अज्ञानी भया संता परद्रव्यस्वरूप जे 5 रागद्वेष तिनिश्वरूप आपकूं करता संता कर्म निकुं करे हैं । बहुरि ज्ञानीकै सम्यक भलेप्रकार फ्र आपापरका भेदज्ञान भया है, ताकरि अत्यंत उदय भया है भिन्न आत्माका प्रगटपणा जाकै तिस
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5 भावकरि ज्ञानमय ही भाव होय है, ताके होर्ते अपना अर परका भिन्नपणाका ज्ञानकरि ज्ञानमात्र 卐
अपना आत्मस्वरूप वर्षे तिष्ट्या संता ज्ञानी है सो परद्रव्यस्वरूप जे रागद्वेष तिनिकरि न्यारा
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traft अपना रहा निवृत्त भया है परविर्षे अहंकार जाकै ऐसा भया संता निश्चयकरि
卐 जानेही है, रागरूप नाही होय है, तथा द्वेषरूप नाहीं होय है । तातें ज्ञानमय भावतें ज्ञानी 5
भया संता परद्रव्यस्वरूप जे रागद्वेष तिनिरूप आत्माकू नाहीं करता संता कर्मनिकं नाहीं 5 करे है।
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5 रागद्वेषभावरूप नाहीं करे है । केवल ज्ञाता ही होय है, तब कर्मकूं नाहीं करे है । आगें अगिली गाथाका अर्धकी सूचनकारूप काव्य कहे हैं ।
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भावार्थ - या आत्मा क्रोधादिक मोहकी प्रकृतिका उदय आवे है, ताका अपने उपयोगमें
5 रागद्वेषरूप कलुष मलिन स्वाद आवे हैं, ताका भेदज्ञानविना अज्ञानी भया संता ऐसा माने हैजो यह रागद्वेषमय मलिन उपयोग है सो ही मेरा स्वरूप है यह ही मैं हूं, ऐसा अज्ञानरूप अहं5 कारकरि युक्त भया संता कर्मनिक बांधे है । ऐसें अज्ञानमय भावतें कर्म
होय है । बहुरि
जब ऐसें जाने है - जो ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग है सो तौ मेरा स्वरूप है, सो मैं हूं, अर रागद्वेष 5
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है सो कर्मका रस है, मेरा स्वरूप नाहीं, ऐसा भेदज्ञान होय तत्र ज्ञानी होय है, तब आपकूं
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