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- प्रधानकरि असत्यार्थ कह्या है अर छद्मस्थकू आपापरका आत्मा साक्षात् दीखे नाहीं अर शरीर .
दीखे, ताकी मुद्रा शांतरूपकू देखि अपने भी शांतभाव होय । ऐसा उपकार जानि शरीरके आश्रय भी स्तुति करे है, तथा शांतमुद्रा देखि अंतरंग वीतरागभावका निश्चय होय है यह भी उपकार है। गाथा
तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होति केवलिणो। केवलिगुणो शुणदि जो सो तच्चं केवलिं शुणदि ॥ २९॥
तन्निश्चयेन युज्यते न शरीरगुणा हि भवन्ति केवलिनः।
केवलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्वं केवलिनं स्तौति ॥२९॥ आरमख्याति-यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पांडुरत्वस्याभावाम निश्चयतस्तद्वधपदेशेन व्यपदेशः । कार्तस्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य न्यपदेशात् तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव तीर्थकरकेवलि पुरुषस्य स्तवनात् । कयं शरीरस्तवनेन तद्पिष्टावृत्वादान्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यते इति चेद. अर्थ-सो स्तवन निश्चयवि युक्त नाहीं है जातें शरीरके गुण हैं ते केवली नाहीं हैं। जो केवलीके गुणनिक स्तवे है सोही परमार्थकरि केवलिकूस्तवे है।
टीका-सुवर्णके रूपेका गुण पांडुरपणा ताका अभाव है, तातें :पांडुरपणा नाककरि सुवर्णका नाम नाही बने है, सुवर्ण के गुण जे पीतपणा आदि, तिसहीके नामकरि सुवर्णका नाम होय है।) सेसेंही तीर्थकर केवली पुरूषके शरीरके गुण जे शुक्लरक्तपणा आदि, तिनिका अभाव है, तातें
निश्चयतें शरीरके गुणके स्तवनकरि तीर्थंकर केवलीपुरुषका स्तवन नाहीं होय है, तीर्थकर केवली " म पुरुषके गुणके स्तवनकरि ही साका स्तवन होय है । आगे शिष्यका प्रश्न है, जो, आत्मा तो
शरीरहीकै आधार है, तातें शरीरके स्तवनकरि आत्माका स्तवन निश्चयकरि कैसें नाहीं युक्त 卐 है ! ऐसा प्रश्नका उत्तररूप दृष्टांतसहित गाथा कहे हैं। गाथा
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