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नामकर्मको प्रकृतिनिके पुद्गलमयपणा आगमविर्षे प्रसिद्ध है । अर प्रत्यक्ष देखनेमें आवे जे शरीर के आदि मूर्तिकभाव, ते पुद्गलकर्म प्रकृतिनिके कार्य है, तिनिकरि अनुमान प्रमाणकरि प्रसिद्ध है।" ऐसे ही गंध. रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन एभी नामकर्मकी प्रकृतिनिकरि किये हैं, ताते तिस पुद्गलते अभेदरूप है, तातें जीवस्थान पुद्गलमय कहने तेही कहे जानने। तातेए । वर्णादिक जीव नाहीं हैं ऐसा निश्चयनयका सिद्धांत है। इहां इस अर्थका कलशरूप काव्य है।
उपजातिच्छन्दः निर्वयते येन यदत्र किंचित्सदेव तत्स्यान्न कथं च नान्यत् ।
कमेण निवृतमिहासिकोशं पश्यति रुक्मं न कथं च नासि ॥६॥ ___अर्थ---जिस वस्तुकरि जो कियो भाव वणे सो वह भाव वस्तु ही है, किछु अन्य वस्तु नाहीं है। जसें रूपे सोनकरि खड्ग का कोश बन्या, साही लोक रूपा सोना ही देखे हैं, तिसकू.. खड्ग तो कोई प्रकार भी नाही देखे है। भावार्थ-वर्णादिक पुद्गलतें बने हैं, ते पुद्गल ही हैं, ते जीन नाहीं हैं । पुनः
वर्णादिसामग्रयमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य ।
ततोस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानधनस्ततोन्यः || शेषमन्यद् व्यवहारमात्रं
अर्थ-अहो ज्ञानी जन हो ! ए वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भाव हैं, ते समस्तही एक पुद्गलकै ॥ रचे तुम जाणू, तातें ए पुद्गल ही होहू, आत्मा मति होहू, जातें आत्मा तौ विज्ञानचन है, ज्ञानका पुंज है । तातै इनि वर्णादिकतै अन्यही है। आगे कहे हैं जो इस ज्ञानयन आत्मा सिवाय अन्य किछु हैं, तिनिळू जीव कहना सो सर्वही व्यवहारमात्र है । गाथा
पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा वादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥६॥
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