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स्वभाववियें समस्त परद्रव्यते निवृत्तिकरि, निश्चल तिष्ठता संता समस्त परद्रव्यक निमित्ततें होती .. जे विशेषरूप चैतन्यविर्षे चंचल कल्लोल, तिसके निरोधकरि, इस चैतन्यस्वरूपकू ही अनुभवता । संता अपने ही अज्ञानकरि आत्माविर्षे उपजते जे ए क्रोधादिक भाव, तिनि समस्तनिकू क्षयकुंज प्राप्त करू हौं । ऐसा आरमावि निश्चय पारि । अर पगे कालका ग्रह्या था जो जिहाज, सो अब छोड्या जाने ऐसा समुद्रका आवर्तकी ज्यों शीघ्र ही उद्वांत कहिये दृरि डारे है समस्त विकल्प जाने, ऐसा निर्विकल्प अचलित निर्मल आत्माकू अवलम्बन करता संता, विज्ञानधन भया, यह आत्मा आस्रवनित निवृत्त होय है।
भावार्थ-शुद्धनयकरि ज्ञानी आत्माका ऐसा निश्चय किया, जो मैं एक हौं, शुद्ध हौं, परद्रव्यतें निर्ममत हौं, ज्ञानदर्शनकार पूर्ण वस्तु हौं । सो जब ऐसा अपना स्वरूपविर्षे तिष्ठं तिस ही का अनुभवनरूप होय, तब क्रोधादिक आश्रव क्षय होय जाय । जैसें समुद्रका आवर्त बहुत कालतें जिहाजकू पकडि राख्या, पोछे कोई कालमै आवर्त पलटै, लव जिहाजकू छोडे, तैसे आत्मा आश्रवनिकू छोडे है। आगें पूछे है-ज्ञान होनेके अर आस्रवनिकी निवृत्तिकै समकाल कैसा है? ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं।
जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफलाणि य णादण णिवत्तदे तेसु ॥६॥
जीवनिवद्धा एते अध्रु वा अनित्यास्तथा अशरणाश्च ।
दुःखानि दुःखफलानि च ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्यः ॥६॥ आत्मख्यातिः-जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धवाः खल्बास्त्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाज्जीव एक। अपस्मारस्थवर्द्धमानहीयमानत्वाध्र वाः खल्यास्रवाः ध्रु वश्चिन्मात्रो जीव एव । शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जभमाण- भी वादनित्याः खल्वासवाः, नित्यो विज्ञानघनस्वभावो जीव एव । बीजनिक्षिक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवद प्रातुमशक्यत्वादशरणाः खल्लासवाः, सधरणः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवाकुलस्वभावत्वा सानि卐
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