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स्वरूप नाहीं है । ऐसा आश्रवका अर जीवका भेदज्ञान भया तिसतें लगता ही शिथिल भया है ॥ सम- कर्मका उदय जाका अर जैसे दिशाका मध्य वादलेकी रचनाका अभाव होय तब निर्मल होय जाय
तैसें अमर्याद फैलावरूप हुवा संता स्वभाव ही करि उदयमान भई जो चिच्छक्ति तिसपणाकरिफं: जैसे जैसे विज्ञानयन स्वभाव होय है तैसे तैसें आस्रवनितें निवृत्त होय है । बहुरि जैसे जैसे आस
वनितें निवृत्त होता जाय तैसे तैसें विज्ञानयन स्वभाव होता जाय ऐसें तहां ताईं विज्ञानधन स्वभाव । 卐 होय है-जेते सम्यक्प्रकार आसूवनितें निवृत्त होय है। बहुरि तहां ताई आसूवनितें निवृत्त होय ।
है-जहां तॉई सम्यविज्ञानवन स्वभाव होय है । ऐसें ज्ञानकी अर आस्रवनिकी निवृत्तिकै सम- । कालपणा है।
भावार्थ-आस्रवनिका अर आत्माका कथा तिस प्रकार भेद जानते ही जेता अंश जिस जिस प्रकार आस्त्रवनिते निवृत्त होय है, तिस तिप्त प्रकार तेता अंश विज्ञानवन स्वभाव होता जाय । जव समस्त आत्रवनि निवृत्त होय तव संपूर्ण ज्ञानवनस्वभाव आत्मा होय है । ऐसें आस्रवकी निवृत्तिकै अर ज्ञानकै एककाल होना जानना। इस आस्रवका अभाव अर संवरका होना गुणस्थाननिकी परिपाटीरूप तत्वार्थ सूत्रकी टीका आदि सिद्धांतनिमें वर्णन है तहांतें जानना । इहां सामान्य प्रकरण है तातें सामान्यकरि कया है । अर इहां विज्ञानयन स्वभाव होना करा, सो " जहां ताई मिथ्यात्व है तहांताई तो ज्ञानफू अज्ञान कहिये अर मिथ्यात्र गये पीछे अज्ञानसंज्ञा , नाही, विज्ञानसंज्ञा है । सो कर्मका क्षय तथा उपशमकी अपेक्षा ज्ञान हीनाधिक होय है। सो
ज्यों ज्यौं आस्त्रक्की निवृत्ति होय, त्यो त्यो ज्ञान वधता जाय ताकू विज्ञान नाम कहिये हैं, थोरेज + ज्ञानकू मिथ्यात्वविना अज्ञान न कहिये ऐसें जानना । अब इसही अ का कलशरूर तथा अगिले कथनकी सूचनिकारूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः इत्येवं विरचय्य संप्रति परगन्यानिसि परां स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिनुवानः परं ।
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