________________
听听听听听听F
है जैसे मयूरके नील, कृष्ण, हरित, पीत आदि वर्ण रूप भाव हैं ते मयूर निजस्वभावकरि भाये है
हुये मयूर ही हैं। बहुरि जैसे दर्पणविर्षे तिनि वर्णनिका प्रतिबिम्ब दीखे है ते दर्पणकी स्वच्छता
निर्मलताका विकारमात्रकरि भाये हुये ते दर्पण ही हैं । मयूरकी अर आरसाकी अत्यन्त भिन्नता ॥ 1- है। तैसें ही मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादिक भाव हैं ते अपने अजीवके द्रव्यस्वभावकरि ..
। अजीवपणेकरि भाये हुये ते अजीव ही हैं । बहुरि ते मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि भाव ' ज, चैतन्यके विकारमात्रकरि जीवकरि भाये हुये जीव ही हैं।
भावार्थ-कर्म के निमित्ततें जीव विभावरूप परिणमे हैं ते तौ चेतनके विकार हैं, ते जीव हैं।" 卐 बहुरि जे पुद्गल मिथ्यात्वादि कर्मरूप परिणमे हैं ते पुद्गलके परमाणु है, तथा तिनिका विपाक उदय ,
रूप होय स्वादरूप होय हैं ते मिथ्यात्वादि अजीव हैं । ऐसें मिथ्यात्वादिभाव जीवाजीव भेदकरि । दोय प्रकार हैं । इहां ऐसा जानना, जो मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृति हैं ते पुदलद्रव्यके परमाणू ' हैं। तिनिका उदय होय तब जीव उपयोग स्वरूप है, सो याके उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है जो जिसका उदयका स्वाद आवै तर तिसकै आकार उपयोग होय तब अज्ञानते तिसका भेदज्ञान 5 होय नाही, तिस स्वादकू ही अपना भाव जाने है। सो याका भेदज्ञान होना जो जीव भावकं ..
जीव जाने, अजीवभाव... अजीव जाने तब मिथ्यात्वके अभाव होय, सम्यग्ज्ञान होय है। आगें । + पूछे है, जो ए मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे ते कौन हैं ? ताका उत्तर कहे हैं । गाथा
पुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं। उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छत्त जीवो दु॥२०॥
पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः ।
उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु ॥२१ आत्मख्यातिः-यः खलु मिध्यादर्शनमशानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूच्चैितन्यपरिणामादन्यद मर्च पुद्गलकर्म, की