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जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। प
कम्मत्तं परिणमदे तह्मि सयं पुग्गलं दव्वं ॥२३॥ ___ यं करोति भावमात्मा का स भवति तस्य भावस्य ।
कर्मस्वं परिगमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलप्रव्यं ॥२३॥ आत्मख्याति:-आत्मा मात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किस करोति तस्यायं कर्ता स्यात्साधकवत् तस्मिन्निमित्त । 5 सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । तथाहि-यथा साधकः किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो
ध्यानस्य कर्ता स्यात् । तस्मिंस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभाषानुकूलतया निमित्तमात्रीभृते सति साधकं कर्तारमंतरेणापि 卐 स्वयमेव बाध्यते विषव्याधयो, विडंब्यंते योपितो, ध्वंस्यंते बंधास्तधायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मनो +
परिणममाने मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात् । तस्मिस्त मिथ्यादर्शनादी भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्या." ॐ त्मानं कर्तारमंतरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनोयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । अज्ञानादेव कर्म प्रभवतीति तात्पर्यमाह। ' ____ अर्थ-आत्मा है सो जिस भावकू करे है ताका कर्ता आप होय है । बहुरि तिसकू' कर्ता होतें पुद्गलद्रव्य है सो आपै आप कर्मपणारूप परिणमे है।
टीका-आत्मा है सो निश्चयकरि आपही करि तैसें परिणमने करि प्रगटपणे जिस भावकू करे है, ताका यह कर्ता होय है, साधक कहिये मंत्र साधनेवालेकीच्यौँ । बहुरि तिस आत्माकू तैसें निमित्त होते पुद्गलद्रव्य है सो कर्मभावरूप आपही परिणमे है। सो ही प्रगटकरि कहे हैं, जैसे साधक जो मंत्र साधनेवाला पुरुष सो तिस प्रकारका ध्यानरूप भावकरि आपहीकरि परिण
मता संता तिस ध्यानका कर्ता होय है । बहुरि समस्त जो तिस साधकके साधने योग्य वस्तु 1- तिसका अनुकूलपणाकरि तिस ध्यानभावकू निमित्तमात्र होते संते, तिस साधकविना ही, अन्यस
" पदिककी विषकी व्याधि ते स्वयमेव मिटि जाय हैं, तथा स्त्रीजन हैं ते विडंबनारूप होय जाय 卐 हैं। बहुरि बंधन हैं ते खुलि जाय हैं । इत्यादि कार्य मंत्रके ध्यानकी सामर्थ्यतें होय जाय है।
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