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को हो । ताकू निषेधे हैं जो निमित्तनैमित्तिक भावकरि भी कर्ता नाहीं है। गाया
जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगुवओगो उप्पादगा य सो तेसिं हवदि कत्ता ॥३२॥
जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि !
योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ॥३२॥ ... आत्मख्यातिः-पत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगा व्याप्यन्याएकभा
वेन तावत्र करोति नित्यकर्तृत्वानुषंगाग्निमित्तनैमित्तिकमावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमि।चत्वेन कर्तारौ योगोपयोगयोस्त्वात्माविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्यात्म
ककर्मकर्ता स्यात् । ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात् ।। + अर्थ-जीव है सो घटकू नाहीं करे है, बहुरि पटकू नाहीं करे है, बहुरि शेष जे बाकी सर्वही
द्रव्य हैं; तिनिकू काहूहीकू नाहीं करे है । जीवके योग अर उपयोग हैं, ते दोऊ तिनि घटादिकके 5 उपजावनेके उत्पादक निमित्त हैं। अर जीव है सो तिनि उपयोगनिका कर्ता है।
टीका-जो किछू घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप प्रगट कर्म देखिये हैं, तिनिकू यह 5 आत्मा व्याप्यव्यापकभावकरि तौ नाहीं करे है। जो ऐसे करे तौ, तिनित तन्मयपणाका प्रसंग - आवै बहुरि निमित्तनैमित्तिक भावकरि भी नाहीं करे है । जाते ऐसे करे तौ, सदा सर्व अवस्थामें के
कापणाका प्रसंग आवै । तो इनि कर्मनिकं कौन करे है सो कहे हैं। जो इस आत्माके योग, मन, वचनकायके निमिततें प्रदेशनिका चलना, अर उपयोग जो ज्ञानका कषायनितें उपयुक्त होना, ए दोऊ अनित्य हैं, सर्व अवस्था में व्यापक नाही, ते तिनि घटादिककू तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्व- .. १९६ रूपकर्मनिकू निमित्तमात्रकरि कर्ता कहिये हैं । बहुरि ते योग उपयोग हैं। ते योग सौ ओत्माके प्रदेशनिका चलनरूप व्यापार हैं अर उपयोग है सो आत्माका चैतन्यका रागादि विकाररूप परि-
प्रम卐 ++++
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