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+ प्रगट उघडता अनुभवन करे है। तोऊ अज्ञानीजनकै यह अमर्यादरूप मोह अज्ञान प्रगट फैलता के
संता कैसें अतिशयकरि नृत्य करे है ! हमारे बडा आश्चर्य है तथा खेद है !! फेरि याका प्रति5 षेध गरे । जो मोह अस्य को है, सौ सौ तथापि ऐसा है--
वसन्ततिलकच्छन्दः अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः ।
रागादिपुद्गलपिकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।१२।। ___अर्थ यह अनादिकालका बड़ा अविवेकका नृत्य है तिसविर्षे वर्णादिमान् पुद्गल ही नृत्य 5 करे है, अन्य कोई नाहीं है। अभेदज्ञानमैं पुद्गल ही अनेकप्रकार दीखे है, किछू जीव सौ
अनेकप्रकार है नाहीं। यह जीव है सो तौ रागादिक जे पुद्गलत भये विकार तिनित विरुद्ध 卐 विलक्षण शुद्ध चैतन्य धातुमय मूर्ति है।
भावार्थ-रागादि चिद्विकारकू देखि ऐसा भ्रम न करना, जो एभी चैतन्य ही हैं, जाते ॐ चैतन्यकी सर्व अवस्थामैं व्यापै, तौ चैतन्यके कहिये । सो ऐसे हैं नाहीं, मोक्ष अवस्थामैं इनिका
अभाव है । तथा इनिका अनुभव भी आकुलतामय दुःखरूप है। चैतन्यका अनुभव निराकुल है, सोही जीवका स्वभाव है ऐसें जानना । आगें भेदज्ञानकी प्रवृत्तिपूर्वक यह ज्ञाताद्रव्य आप प्रगट होय है, ऐसे महिमा करि अधिकार पूरण करे हैं, ताका कलशरूप काव्य कहे हैं।
_ मन्दाक्रान्ताछन्दः इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैक यावत्प्रयातः।
विश्व व्याप्य प्रसभविकशद्वयक्तचिन्मात्रशक्त्या ज्ञातद्रव्यं स्वमतिरसात्तात्रदुच्चवचकाशे ॥१३॥ इति जीवाजीचौ पृथग्भूत्वा निष्क्रांती---
___ इति समयसारव्याख्यायामात्मख्याती प्रथमोंकः । अर्थ-याप्रकार ज्ञानरूप करोतकी कलनाका पाटन कहिये पारंवार अभ्यास करना, साकू
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