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卐 बहुरि कोधादिकका होना परिणमना सो कोधादिक है । ऐसें होते जो ज्ञानका परिणमना है 卐 5 सौ क्रोधादिकका परिणमना नाहीं है । जाते जैसे ज्ञान होते ज्ञान ही होता भाइये है, ते क्रोधादिक नाही भाइये हैं । बहुरि जो क्रोधादिकका होना परिणमना है सो ज्ञानका परिणमना 45 नाहीं है । जाते जैसे कोधादिक होतें कोधादिक होते ही भाइये हैं, तेसे ज्ञान भी होता नाहीं भाइये है । ऐसें कोeriesकै अर ज्ञानकै निश्चयतें एक वस्तुपणा नाही है । ऐसें या प्रकार फ्र म अर व विशेष देखनेकरि जिसका भेद जाने है, तिस काल इस आत्माकै अनादि कालतें भई जो परविवें कर्त्ताकर्मकी प्रवृत्ति सो निवृत्त होय हैं । बहुरि तिसकी निति हो अज्ञानके निमित्त होता जो पुद्गल द्रव्यकर्मका बंध सो भी निवृत्त होय है । तैसें होतें ज्ञानमात्रतेहि बंधका निरोध सिद्ध होय है ।
भावार्थ- क्रोधादिक अर ज्ञान न्यारे न्यारे वस्तु हैं, ज्ञानमें series नाही, क्रोधादिक फ्री ज्ञान नाहीं । ऐसा इनका भेदज्ञान होय तब एकपणाका अज्ञान लिये। तब कर्म का भी न होय । ऐसें ज्ञानही बंधा निरोध होय है । आगे पूछे हैं, ज्ञान
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का निरोध कैसे 卐
5 है ? ताका उत्तर कहे हैं। गाथा
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णादण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च ।
दुक्खस्स कारणं ति य तदो नियत्तिं कुणदि जीवो ॥ ४ ॥ ज्ञाला आत्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च ।
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दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृत्तिं करोति जीवः ||१||
आत्मख्यातिः --- जले जग गोपलम्यमानत्वादः साः भगवामा तु नित्यमेवातिनिर्मउ
चिन्मात्रस्वेनोपलंमकत्वादसिदिपराः
साः भगवानमा दु आइलोसादकत्वाद् दुःखस्य कारणानि
frerna forcererna स्वयं चेदन्यस्वगल एप फ खल्लास्रवाः भगवानात्मा तु निल्यभैयानाकुलत्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वात् दुःखस्याकारणमेव । इत्येवं विशेश्दर्शनेन यदे
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