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विषं विनाश नाहाँ है । अचल है, चैतन्यपणातें अन्यरूप चलाचल कबहू न होय है। बहुरि स्वसं4 वेध है, आपहीकरि जान्या जाय है । बहुरि स्फुट कहिये प्रगट है, छिप्या नाहीं है। आगें दूसरा लक्षणका अव्याप्ति अतिव्याप्ति दूषण दूरि करने• काव्य कहे हैं।
__ शाई लविक्रीडितच्छन्दः वर्णायः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नापूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगजीवस्य तत्त्वं ततः। इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यसिव्यापि वा व्यक्तं व्यंजितजीवतयमचलं चैतन्यमालंम्यतां ॥१०॥ अर्थ-जो जीवका लक्षण अमूर्तिकपणा कहिये, तो अजीव पदार्थ दोय प्रकार है। धर्म, अधर्म, प्र आकाश, काल, ए तो वर्णादिकभावरहित हैं, अर पुद्गल है सो वर्णादिसहित है। तातें अमूर्तिकपणाकू ग्रहणकरि लोक जीवका यथार्थ स्वरूपकू नाहीं देखे, यामैं अतिव्याप्तिदूषण आवै । बहुरि ॥ वर्णादिकमैं रागादिक भी आय गये, ते रागादिक जीवका लक्षण कहिये, तो तिनिकी व्याप्ति पुदगलहीते है, जीवकी सर्व अवस्थामै व्याप्ति नाहीं । तातें अव्याप्तिदूषण आवै । ऐसें भेदज्ञानी. पुरुष आलोचना करि परीक्षा करि अतिव्याप्ति अव्याप्ति दूषण रहित चेतनपणा लक्षण करा
है, सो भलैप्रकार योग्य है । प्रगट जीवका यथार्थस्वरूप जाने व्यक्त किया है। बहुरि कैसा है ? 卐 जीवतें कबहू चलाचल नाहीं है, सदा विद्यमान रहे है। सो जगत इसही लक्षणकू अवलंबो, के . याहीत यथार्थ जीवका ग्रहण होय है। आगें जो ऐसा लक्षणकरि जीव प्रगट है, सो तौऊ
अज्ञानी लोककै याका अज्ञान कैसा रहे है ? ताका आचार्य आश्चर्य तथा खेद सहित वचन 5
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वसन्ततिलकं छन्दः जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्न ज्ञानी जनोनुभवति स्वयमुलसन्तम् ।
___ अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोय मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ॥११॥ + · अर्थ-ऐसें पूर्वोकलक्षणते जीवतें अजीव भिन्न है, सो शानीजन है सो याळू आपे आप +