________________
5 फ्र फ्र 45
फ्र
**க்க*********
फफफफफफफफफफ
अथ कर्तृकर्माधिकारः ।
दोहा - कर्ता कर्मविभावकूं मेटि ज्ञानमय होय ।
कर्म नाशि शिवमैं बसे तिन्हें नम् मद खोय ॥१॥ मात्मख्यातिः– अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषेण प्रविशतः ।
अब टीकाकारके वचन हैं— जो जीव अजीव दोऊ एक कर्ताकर्मका वेष करी प्रवेश करे हैं । 5 जैसें दोय पुरुष आपसमें कि एक स्वांग करी, नृत्यके आखाडामैं प्रवेश करें, तैसें इहां अलंकार जानना । तहां प्रथम ही तिस स्वांग ज्ञान है सो यथार्थ जानी ले है, ताकी महिमा करता संता काव्य पढे हैं।
卐
卐
मन्दाक्रान्ताछन्दः
5
एक: कर्चा चिहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृचिम् । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदानमत्यन्तधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्य निर्मासि विश्वम् ॥ १॥ अर्थ — ज्ञान ज्योति है सो प्रगट स्फुरायमान हो है । कहा करता संता ? अज्ञानी जीवनिकै 5 ऐसी कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है, जो इस लोकविषे मैं चैतन्यत्ररूप आत्मा हूं सो तौ एक कर्ता हूं बहुरि एक्रोधादिक भाव हैं ते मेरे कर्म हैं, सो ऐसा कर्ता कर्मको प्रवृत्तिकू साक्षात् यह ज्ञान शमन फ करता संता है मेटता है । कैसा है ज्ञानज्योति ? उत्कृष्ट, उदात्त है काहूके आधीन नाही है। फ्र बहुरि कैसा है ? अत्यंत धीर है, काहू प्रकारकरि आकुलतारूप नाहीं है। बहुरि कैसा है ? विना परके सहाय न्यारे न्यारे द्रव्यकूं प्रतिभासनेका जाका स्वभाव है, याहीतें समस्त लोकालोककूं 5 साक्षात् प्रत्यक्ष करता है जानता है ।
૨
भावार्थ - ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है सो परद्रव्यका अर परभावनिका कर्तीकर्मपणाका 5 अज्ञानकूं दूरि करि आप प्रगट प्रकाशमान हो है । आगें कहे हैं जो यह जीव जेतें आसवके अर