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म है। जातें समस्तपणे कर्मते न्यारा अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि स्वयं प्राप्य-5
मानपणा है ते प्रत्यक्ष आप अनुभवे हैं ॥१॥ बहरि अर्थक्रियाविर्षे समर्थ कर्मका संयोग भी जीव
नाही है। जातें कर्मसंयोगते न्यारा “जैसे आठ काठरूप खाटते खाटका सोवनेवाला पुरुष 15 अन्य है, तैसे" अन्य चैतन्यस्वभारूप जीवका भेद्र ज्ञानीनिकरि स्वयं प्राप्यमानपणा है ते आप प्रत्यक्ष अनुभवे ॥८॥ ऐसे ही अन्य कोई और प्रकार कहें, तहां भी यह ही युक्ति जाननी ।।
भावार्थ-चैतन्यस्वभवरूप जीव सर्व परभावनितें न्यारा भेदज्ञानीनिके अनुभवगोचर है, तातें अज्ञानी माने हैं तैसें नाहीं है। अब इर्हा पुद्गलतें भिन्न जो आत्माको उपलब्धी, ताप्रति 卐 विप्रतिपन्न कहिये अन्यथा ग्रहण करनेवाला पुद्गलहीकू आत्मा जानता जो पुरुष, ताकू साम
कहिये ताके हितरूप मिलापको वार्ता कहिकार, समभावहीतें उपदेश कहना सोही काव्यमें 卐 कहे हैं।
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकं ।
हृदयसरसि पुंसः पुनलाभिन्नधानो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः ॥२॥ ___ कथंचिदन्वयप्रतिभासेप्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत् ।
___ अर्थ हे भव्य ! तेरे अन्य जे विनाकार्य निकम्मा कोलाहलकरि कहा साध्य है? तिस कोलाए हलतें तू विरक्त होऊ अर एक चेतन्यमात्र वस्तुकू आप निश्चल लीन होय देखि । ऐसें छह महिना +
अभ्यास करि । ऐसें कोये, अपना हृदयसरोवरविर्षे पुदगलते भिन्न है तेज प्रताप प्रकाश जाका " 卐 ऐसा जो पुरुष आत्मा, ताकी कहा प्राप्ति न होय है ? ऐसा नियम है, जो प्रासि होय ही होय। 卐
__ भावार्थ-जो अपने स्वरूपका अभ्यास करें, तो ताकी प्राप्ति होय ही होय । जो परवस्तु .. 卐 होय, तौ ताकी तो प्राप्ति न होय । अपना स्वरूप तौ विद्यमान है, भूलि रहा है सो चेतकरि का
देखे तो पासिही है । इहां छह महिना अभ्यास करा सो ऐसा न जानना, जो एतेहीमैं होय, - का याका होना तौ मुहूर्तमात्रमें ही है। परंतु शिष्यकू बहुत कठिग भास तो ताका निषेश है, जो ।
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