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एवं गंधरसस्पर्शरूपाणि देहः संस्थानादयो ये च ।
सर्वे व्यवहारस्य च निश्चयदृष्टारो व्युपदिशन्ति ॥६०॥ आत्मख्याति:- यथा पथि प्रस्थित कंचितार्थ सुष्यमाणमक्लोक्य तात्स्ध्यात्तदुपचारेण मुम्पत एष पंथा इति म्यव-_ २. हारिणां व्यपदेशेपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पंथा सुष्येत । तथा जीवे बंधपर्यायेणावस्थितकर्मणो 卐
नोकर्मणो वर्णमुत्प्रेक्ष्य तास्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोईई वानां प्रज्ञापनेपि न निश्चयतो नित्यमेवामूस्विभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोस्ति । एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्यय- 5
कर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्द्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थान4. विशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थाननुणस्थानान्यपि व्यवहारत्तोहदेवानां प्रज्ञापनेपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्चस्वमा
चस्पोपयोगगुगेनाधिका जीवस्य खण्यिपि न संति तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावात् । कुतो जीवस्य वर्णादिमिः सह + तादात्म्यलक्षणः संबंधो न सीति चेत् ।
___ अर्थ-जैले मानविय चालतेकू लूटता देखि, व्यवहारी लोक कहैं, यह मार्ग लुटे है। तहां 卐 परमा विचारिये तब, कोई शार्ग तो नाहीं लुटे है, चालते लोक ही लुटे हैं । तैसें जीवविर्षे कर्मनिका तया नोकर्मनिका वर्णकू देखिकरि जिनदेव व्यवहारतें कहा है, जो यह वर्ण जीवका है। ऐसे ही गंध, रस, स्पर्श, रूप, देह, संस्थान आदिक जे सर्वही हैं ते व्यवहारका उपदेश है। ऐसें निश्चयनयके देखनेवाले को हैं।
टीका—जैसें मार्गकि चालता साथकू लूटता देखि अर कोई कहे, जो यह मार्ग लुटे है। " - तहां तिल मार्ग:वर्षे लुटनेते मार्ग लुटनेका उपचारकरि कहे हैं। ऐसा व्यवहारी लोकनिका कहना है होते भी, निश्चयतें देखिये सब, लार्ग आकाशके प्रदेशका विशेष है, सो मार्ग तो कोई लुटे है नाहीं। ..
तैसें जीववि. बंधपर्यायकरि अवस्थित जो कर्मका अर नोकर्मका वर्ण, ताहि देत्रिकरि जीवविर्षे . .. तिष्ठनेकरि तिजमा उपचार करे जीवका यहे वर्ग है, ऐसे व्यवहारतें भगवान् अरहंतदेव प्रज्ञापन करे ।।
है, जनावे है, तो निश्चय जीव है सो नित्यही अमूर्तस्वभाव है, अर उपयोगगुणकरि अन्य द्रव्यते ॥ 17 अधिक है, भिन्न है, ताते ताले कोई वर्ण नाहीं है। ऐसे ही गंध रस. स्पर्मा, रूप, संस्थान, संहनन, 17
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