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卐 राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गगा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योग- 卐 स्य... स्थान, बंपत्यान, उदयस्थान, मार्ग गास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयम
लब्धिस्थान, जीवस्यान, गुगस्थान र सर्व ही व्यवहारते जीवकै अरिहंतदेव कहे हैं। तोऊ निश्चयतें = जीव है, सो निस्य हा अनूतवभाव है । अर उपयोग गुणकारे अन्यतें अधिक है, भिन्न है, तातें ताके " ए सर्वही नाही हैं जातें छान वर्णादिक भावनिकै अर जीवके तादाम्यलक्षणसम्बन्धका अभाव है। "
भावार्थ-ए वर्णतें लगाय गुणस्थानपर्यंत भाव कहे, ते सिद्धान्तभं जावक कहे हैं, ते व्यव- 5 हारनयकार कहे हैं । निश्चयनयकरि जीवकै नाहीं हैं जाते जीव तो परमार्थकरि उपयोगस्वरूप है बहुरि इहां ऐसा जानना-जो पहले व्यवहारनयकू असत्यार्थ कह्या है, तहाँ ऐसा तो नाहीं, जो सर्वथा ही असत्यार्थ है ; कथंचित् असत्यार्थ जानना । जातें जहां एक द्रव्यकू न्यारा पर्यायनितें अभेद असाधारण गुणमात्रकू प्रधानकरि कहिये, तब परस्परद्रव्यनिका निमित्तनैमित्तिकभाव तथा ) निमित्ततें भये पर्याय, ते सर्व गौण भये, तिस एक अभेदद्रव्यकी दृष्टिमैं तिनिका प्रतिभास
नाहीं । तातें ते सर्व तिसद्रव्यमैं नाहीं हैं। ऐसे कथंचित् निषेध करिये। बहुरि तिस द्रव्यमैं म कहिये तव व्यवहारनयकरि कहिये, ऐसा नयविभाग है। सो इहां शुद्धद्रव्यकी दृष्टिकरि कथन ।
है। तातै तिनि सर्वहीकू जीवकै व्यवहारनयकरि कहा है, ऐसें सिद्ध किया है। अर निमित्त. 卐 नैमित्तिकभावकी दृष्टिकरि देखिये तब कथंचित् सत्यार्थ भी कहिये। सर्वथा असत्यार्थ ही कहिये,
तो सर्व व्यवहारका लोप होय । तब परमार्थकाभी लोप होय । तातें जिनदेवकी देशना स्याद्वाद + रूप ही समझै सम्यग्ज्ञान है, सर्वथैकांत मिथ्यात्व है। आगें पूछे है, जो वर्णादिककरि जीवकै 5 5 तादाम्यसम्बन्ध काहेते नाहीं ? ऐसे पूछे, उत्तर कहे हैं। गाथा--
तत्थभवे जीवाणं संसारस्थाण होंति वण्णादी। संसारपसुक्काणं णत्थि दु वण्णादओ केई ॥६१॥
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