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भगवान् वीतराग सर्वज्ञ अरिहंतदेव, तिनहि पुद्गलद्रव्यके परिणाममयपणाकरि कहे हैं। ताते । 5 चैतन्यभावकरि शून्य जो पुलद्रव्य, तातें भिन्नपणाकरि कहा जो चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य, +
सो होनेकू नाहीं समर्थ है। तातें निश्चयतें आगम अर युक्ति अर स्वानुभव इनि तीननिकरि प्राम+ बाधितपक्षपणातें जे इनि अध्यवसानादिकळू जीव कहे हैं, ते परभार्थवादी सत्यार्थवादी नाहीं है।' - तहां यह ही सर्वज्ञका वचन है, जो ए जीव नाही सो तो आगम है। बहुरि यह स्वानुभवग
भिंत युक्ति है सो कहे हैं । जो नैसर्गिक कहिये स्वयमेव उपज्या ऐसा रागद्वेषकरि कल्माषित कहिये + मलित अध्यवसान है सो जीव नाही है। जाते ऐसे अध्यवसानते न्यारा जैसे सुवर्ण कालिमातें
न्यारा है तैसें चित्स्वभावरूप जीवभेद ज्ञानीनिकरिपाइए है, ते प्रत्यक्ष चैतन्यभावकू न्याराअनुभवे के हैं। बहुरि अनाद्यनंत पूर्वापरीभूत एक संसरणक्रियारूप क्रीडा करता कर्म है सो भी जीव नाहीं ..है। जातें कर्मत न्यारा अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि प्राप्यमानपणा है ते
प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥२॥ बहुरि तोत्र मंद अनुभवकरि भेदरूप भयादुरंत रागरसकरि भरया अध्यव- 卐 सानकासंतान भी जीव नाहीं है । जात तिस संतानतें अन्य न्यारा चैतन्यस्वभावरूपजीवका भेद ज्ञानीनिकरि प्राप्यमानपणा है ते प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥३॥ बहुरि नई पुरानी अक्स्थादिकका भेदकरि प्रवर्तता जो नोकर्म, सोभी जीव नाहीं है। जातें शरीरतें अन्य न्यारा चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि स्वयमेव प्राप्यमानपणा है ते आए प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥४॥ बहरि " समस्त जगत• पुण्यपापरूपकरि व्यापता कर्मका विपाक है, सो भी जीव नाहीं है। जातें शुभा.' शुभभावते अन्य न्यारा चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि प्राप्यमानफ्णा है ते आप
प्रत्यक्ष अनुभवे हैं ॥५।। बहुरि साता असाता रूपकार व्यास जे समस्त तीत्रमंदपणारूप गुण, 1-तिनिकरि भेदरूप होता जो कर्मका अनुभव, सोभी जीव नाहीं है। जातें सुखदुःखते न्यारा + अन्य चेतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानीनिकरि स्वयं प्राप्यमानपणा है ते आप प्रत्यक्ष अनुभवे 卐 हैबहुरि सिखरिणीकी ज्यौं दोय स्वरूपपणाकरि मिले आत्मा अर कर्म वोऊही जीव नाही
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