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ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावाः ॥४६॥ व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वर्णितो जिनवरैः । जीवा एते सर्वेऽध्यवसानादयो भावाः ॥४६॥
आत्मख्यात्तिः– सर्वे एवैते ऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रशतं तदभूतार्थस्यापि व्यव
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भावार्थ - यह आत्मा कर्मका उदय आवे तब दुःखरूप परिणमे है अर दुःखरूप भाव है सो 45 अध्यवसान है । तातें दुःखरूप भावविषै वेतनताका भ्रम उपजे है, परमार्थतें नाहीं है, कर्मजन्य है, यातें नड ही है। आगे पूछे है, जो ए अध्यवसानादिभाव हैं ते स्वभाव हैं तो सर्वज्ञके आगममें इनिकं जीवभावकरि कैसें कहे हैं ? ऐसें पूछे याका उत्तरका 5 सूत्र कहे हैं। गाया
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व्यवहारी जीवन परमार्थका कहनहारा है। जैसें म्लेछकी भाषा है सो म्लेच्छनिकूं वस्तुस्वरूप जन्नावे है तैसे है । तातें अपरमार्थभूत है तौऊ धर्मतीर्थप्रवृत्ति करनेकुं व्यवहारनयका वर्णन न्याय्य है । तातें तिस व्यवहारकूं कहे बिना परमार्थ तो जीव शरीरतें भिन्न कहे है। सो याका एकांत
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हारस्यापि दर्शनं । व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं 15 दर्शयितुं न्याय्य एव । तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो मेददर्शनात् सस्थावराणां भस्मन् इव नि:शंकपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बंधस्याभावः । तथारक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो 15 भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव: । अथ केन दृष्टांतेन प्रवृत्ती व्यवहार इति चेदअर्थ- जो ए अध्यवसानादिक भाष हैं ते जीव हैं ऐसें जिनवरदेवने उपदेश वर्णन किया हैं, फु सो यह व्यवहारनयका दर्शन है, मत है ।
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टीका - सर्व ही ए अध्यवसानाविक भाव हैं ते जीव हैं, ऐसें जो भगवान् सर्वज्ञदेव कया, 5 सो अभूतार्थ असत्यार्थरूप जो व्यवहारनय, ताका दर्शन कहिये मत है।
व्यवहार है सो
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