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भावार्थ-परमार्थनय अभेद ही है, तात तिसदृष्टिकरि देखतें भेद नाही दीखे है, तिसनयकी दृष्टिमैं चैतन्यमात्रही पुरुष दीखै है । तासे ते सर्वही वर्णादिक तथा रागादिक पुरुषके भिन्नही पर हैं। अर इन वर्गकू आदि लेकरि गुणस्थानपर्यंत भाव हैं, तिनिका स्वरूप विशेषकर जान्या " चाहै, सो गोम्मटसार आदि ग्रंथनि” आणियो। भागें पूछे है, जो वर्गादिक भाव ए कहे तेजीवकै 卐 नाहीं हैं, तो अन्यसिद्धांतविर्षे ए जीवके हैं ऐसे कैसा कया है ? ताका उत्सर गाथामैं कह्या है। माथा
यवहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंताभावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥५६॥
व्यवहारेण स्वेते जीवस्य भवंति वर्णाद्याः।
गुणस्थानांता भावा न तु केचिनिश्चयनयस्य ॥५६॥ म आत्मख्यातिः-इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाधिवत्वा जोवप प्रदरतं गोगपशादनादिप्रसिद्वबंधपर्यायस्य
कुसुमरक्तस्य कार्यासिकासस वीपाधिक मालमत्रव्योत्तमान परमात्र परस्त्र विदधाति । निश्चयनयस्तु द्रव्याधि卐 तत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमत्रलंम्पोत्सवमानः परमात्र परस्य लयमेव प्रतिवमाते । तमो व्याहारेण वर्णा
दयो गुणस्यानात मावा जीवस्य संसि विश्वयेव तुन संसोति गुका प्राप्तिः। कुतो जोवस्य वीदयो निश्चयेन न 'संतीति चेत् । .. अर्थ-ए वर्ण आदि गुणस्थान अंत जे मात्र कहे ते जोके व्यवहारनपकार होय हैं, तातें + सूत्रमैं कहे हैं। बहुरि निश्चयनयके मतों तौ इनि का केई जीवके नाहीं हैं।
टीका-हां व्यवहारनय है सो पर्यायाश्रित है, सो पुद्गलके संयोगके वशते अनादितें प्रसिद्ध के है बंपर्याय जाके ऐसा जीवकै "जैसे कयासके शेतको कुनुभाका लालरंग औयाधिक होय 卐 है तैसें" औपाधिकभाव जीवके वर्णादिक होय हैं । तिनिकू आलंबनकरि व्यवहारनय प्रवर्ते है,