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है । जाते मैं तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव हूं। यह गड है, सो परमार्थते परके भावको _5 परका भावकरि भावनेका असमर्थपणा है, तो इहां कहां जाणिये है? जो स्वयमेव सास्त ॥
.... वस्तूका प्रकाशनेवि चतुर विकासरूप भई अर निरंतर शाश्वती प्रतापसंपदा जामें पाईये ऐसी १८ चैतन्यशक्ति, तिसमात्र स्वभावभावकरि भगवान् आत्माहीकू जाणीये है-जो मैं हूं सो पारमार्थकार .. एक चिच्छक्तिमात्र हूं। तात समस्तद्रव्यनिके परस्पर साधारण एकक्षेत्रावगाहका निवारण करनेका
असमर्थपणातें “जैसे दही अर. खांड मिली शिखरणी होय, तब दही खांड एकसे होय रहे हैं तोऊ प्रगट खाटा मीठा स्वादके भेदते न्यारे न्यारे जाने जाय हैं, तैसें" द्रव्यनिके लक्षणभेदतें जड ,
चेतनका न्यारा न्यारा स्वादतें प्रगट जान्या है। जो मोहकर्मका उदयका स्वाद रागादिक है, सो ५ चैतन्यके निजस्वभावके स्वादतै न्यारे ही हैं, तातै मोहप्रती मै निर्मम ही हूं। जाते यह आत्मा,
सदाकाल ही आपणे एकरूपपणाकू प्राप्त हुवा अपना स्वभावरूप समय, सोही भया महल, 'तावि तिष्ठे है। ऐसें भावकभाव जो मोहका उदय, तातें भेदज्ञान भया।
भावार्थ-यह मोहकर्म है सो जड पुद्गलद्रव्य है, याका उदय कलुष मलिनभावरूप है, सो 5 याका भाव है सो भी पुद्गलविकार है। सो यह भावकका भाव है, सो जब यह चैतन्यके उप
योगके अनुभवमें आवै, तब उपयोग भी विकारी होय रागादिरूप मलिन दीखें । सो जव . याका भेदज्ञान होय, जो चैतन्यकी शक्तिकी व्यक्ति तौ ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र है अर यह कलुषता - रागद्वेषमोहरूप है, सो तिस द्रव्यकर्मरूप जडपुद्गलद्रव्यकी है। ऐसा भेदज्ञान होय तब भावक
भाव जो द्रव्यकर्मरूप मोहके भाव, तिनितें भेदभाव क्यों न होय ? होय ही होय । आमा अपने चैतन्यके अनुभवनरूप ठहरै ही ठहरै, ऐसा जानना। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
स्वागताछन्दः सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्यमिहकम् । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिदनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥
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