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भावार्थ- आत्मा अनादितें मोहके उदयतें अज्ञानी था, सो श्रीगुरुनिके उपदेशर्तें अर अपनी काललब्धीतें ज्ञानी भया, अपना स्वरूपकूं परमार्थते जान्या - जो मैं एक हूं शुद्ध हूं अरूपी हूं ० दर्शनज्ञानमय हं ऐसें जाननेतें मोहका समूहतें नाश भया भावकमात्र अज्ञेयभाव तिनतें ज्ञ ज्ञान भया, अपनी स्वरूपसंपदा अनुभवमें आई, अब फेरि काकूं जोड़ उपजेगा ? नाहीं उपजेगा। 5 अब ऐसा आत्माका अनुभव भया ताका आचार्य महिमा कही प्रेरणारूप काव्य कहे हैं - जो ऐसें ज्ञानस्वरूप आत्मा समस्तलोक मग्न होऊ ।
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वसन्ततिलका छन्दः
मज्जंतु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छ्वलति शांतरसे समस्ताः । आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीभरेण प्रोन्मत्र एप भगवानवबोधसिंधुः ||३२|| इति श्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्याती पूर्वरंगः समाप्तः ।
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अर्थ -- यह ज्ञानसमुद्र भगवान् आत्मा है सो विभ्रमरूप आडी चादर थी ताकूं समूलतें डबोय- 5 करि दूरि करि, आप सर्वांग प्रगट भया है । सो अब समस्त लोक हैं ते याके शांतर सविषै एकैकाल ही अतिशयकरि मन होऊ । कैसा है शांतरस ? समस्त टोकर्तााई उझल्या है ।
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भावार्थ- जैसे समुद्र आडा किछू आवै तब जल दीखे नाहीं, अर जब आड दूरी होय तब फ प्रगट होय, तब लोककूं प्रेरणा योग्य होय, जो या जलविषै सर्व लोक स्नान करो। तैसें यह आत्मा विभ्रमकरि आच्छादित था, तब याका रूप न दीखे था, अत्र विभ्रम दूरि भया तब यथा- फ स्वरूप प्रगट भया, अब याके वीतराग विज्ञानरूप शान्तरसविषै एकाकाल सर्व लोक मग्न होऊ । ऐसें आचार्य प्रेरणा करी है । अथवा ऐसा भी अर्थ है, जो आत्माका अज्ञान दूरि होय तब केवलज्ञान प्रगट होय है, तब समस्त लोकमें तिष्ठते पदार्थ एकैकाल ज्ञानविषे आय झलके हैं ताको देखो । ऐसें इस समयप्राभृतग्रंथविषै पहला जीवाजीवाधिकारविर्षे टीकाकार पूर्वरंगस्थल
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कथा ।