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है। मैं ऐसा जानू हूं, जो एक उपयोग है सोही मैं हूं । ऐसें जाननेकूं धर्मद्रव्यतें निर्ममत्वपणा समय सिद्धांत तथा अपना परका स्वरूपरूप समयके जाननेवाले पुरुष हैं ते जाने हैं, कहे हैं । टीका- --ए धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल अन्य जीव बेलें सर्वही परद्रव्य हैं, ते आत्मा- 5 वि प्रकाशमान हैं। कैसें सो कहे हैं-अपने निजरसकरि प्रगट भया अर निवारया न जाय
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कर एक ही हूं, तातें ज्ञेयज्ञायकभावमात्रतें उपज्या जो परद्रव्यनित परस्पर मिलना, ताके होते
भी, प्रगट स्वादमैं आवता जो स्वभावका भेद, तिसपणाकरि धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल
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ऐसा है फैलना जाका, अर समस्त पदार्थसमूहके ग्रसनेका है स्वभाव जाका, ऐसी जो प्रचंड 55 चिन्मात्रशक्ति, ताकरि ग्रासीभूत करनेकरि मानू अत्यंत निमग्न होय रह्या है, ज्ञानमें तदाकार होय डूबी रहे है ऐसें । तौऊ टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावपणाकरि परमार्थतें अंतरंगतत्त्व सो 5 तौ मैं हूं अर ते परद्रव्य, तिस मेरे स्वभावतें भिन्नपणाकरि परमार्थतें बाह्यतपणाकू छोडने असमर्थ हैं, धर्म आदि मेरे संबंधी नाहीं हैं। इहां ऐसा जानिये जो यह आत्मा चैतन्यते आप ही उपयुक्त हुवा संता, परमार्थतें अनाकुल जैसे होय तेसैं, सर्व आकुलतासृ रहित होयकर, आत्माहीका अभ्यास करता संता है, सो आत्माकरि आत्मा ही जानिये है, जो मैं प्रगट निश्चय
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अन्यजीव, तिनिप्रति में निर्मम हो । जातें सदा ही काल आपविषै एकपणाकरि प्राप्त होनेकरि फ
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समय कहिये पदार्थनिकी याही व्यवस्था है, अपने स्वभावकूं कोई छोडता नाहीं हैं, ऐसें अनुभव
* करने ज्ञयभावनितें भेदज्ञान भया कहिये । इहां इस ही अर्थका कलशरूप काव्य है ।
मालिनी छन्दः
इति सति सह सर्वैरन्यभावैविवेके स्वसमयमुपयोगो विदात्मानमेकं ।
प्रकटितपरमार्थदर्शनज्ञानवत्तैः कृत्परिणितिरात्माराम एव प्रवृत्तः ॥ ३१ ॥
दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यात्मनः कीदृक स्वरूपसंचेतनं भवतीत्यावेदयन्नुपसंहरति ।
अर्थ - ऐसें पूर्वोकप्रकार भावकभाव अर ज्ञेयभावनितें भेदज्ञान होतें, सर्वही जे अन्यभाव 5
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