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5 एक अपने आत्माकूं अनुभव है । सो जीत्या है मोह जानें ऐसा जिन है । कैला है आत्मा ? समस्तलोक उपरि तरता अर प्रत्यक्ष उद्योतपणाकरि नित्यहि अंतरंगविषै प्रकाशमान अविनाशी 5 अर आपहीतें सिद्ध भया परमार्थरूप भगवान ऐसा जो ज्ञानस्वभाव ताकरि अन्यद्रव्यके स्वभावकरि होनेवाले जे सर्व ही अन्यभाव, तिनितें परमार्थकरि अतिरिक्त कहिये अधिका है, न्यारा है । 卐 ऐसा ज्ञानस्वभाव 'अन्यभावनि मैं नाही' है ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्माकूं अनुभवे है ।
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भावार्थ - ऐसें अपना आत्मा, भावक जो मोह, ताके अनुसार प्रवृत्ति भाव्यरूप होय, ताकूं भेदज्ञानके चलतें न्यारा अनुभवे सो जितमोह जिन है । ऐसें भाव्यभावकभावके संकर दोषपरिहार क फ करि, दूसरी निश्चयस्तुति है । इहाँ आशय ऐसा- जो, श्रेणी चढतें मोहका उदय अनुभव न 卐 रहै, अपने बलतें उपशमादि करि आत्माकूं अनुभवे है, ताकूं जितमोह कया है । इहां मोहकूं 15 जीत्या है ताका नाश न भया । इहां गाथामैं एक मोहहीका नाम लिया, तातें मोहका पद पलटिकरि, ताको जायगा राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन्द, वचन, काय ए ग्यारह इस सूत्रकरि, अर श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसन, स्पर्शन ए पांच इंद्रियसूत्रकरि, ऐसें सोलह पद 5 पलटनेते, सोलह सूत्र न्यारे न्यारे व्याख्यानरूप करने, अर इस ही उपदेशकरि अन्य भी विचारणे । आगे भाव्यभावकभावके अभावकरि निश्चयस्तुति कहे हैं। गाथा
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जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स ।
तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूर्हि ॥ ३३ ॥ जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः ।
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः ॥३३॥
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आत्मख्यातिः - इह खलु पूर्वप्रकान्तेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावानं तिरिचात्मसंचेतनेन
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15 जितमोहस्य ससो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवाचष्टंभात्तत्संवानात्यंत विनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः 卐
स्याचदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णपरमात्मानमवाशः क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः ।
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