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वर्णादिक अन्यथा दीखे थे, अर जब विकार मिटे, तब जैलाका तैसा दोख्या तैसें प्रगट उघडचा
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है” पटलस्थानीय आवरणकर्म जाका, ऐसा भया संता प्रतिबुद्ध भयो, तब साक्षात् देखनेवाला
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" आपके आप ही करि जानि अर श्रद्वान करिअर तिसकूं आचरण करनेका इच्छक भया संता पूछे है, जो इस आत्मारामके अन्यद्रव्यनिका प्रत्याख्यान कहिये त्यागना, सो कहा होय ? ऐसें 卐 5 पूछते संते आचार्य कहै हैं । जो ऐसें कहना । गाथा
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णाणं सव्वे भावे पञ्चक्खादि परेत्ति णादूण | ता पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ॥ ३४॥ ज्ञानं सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति च परानिति ज्ञाला । तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम् ॥ ३४ ॥
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आत्मख्यातिः—यतो हि द्रभ्यांतरस्वभावभाविनोऽन्यानाखलानपि भावान् भगवदज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभावभावाम्याप्य
तया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्ट ततो य एवं पूर्व जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्ट े न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्त्तितकर्तृ स्वन्पपदेशत्वेपि परमार्थेनाव्यपदेश्य ज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात्प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयं । अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टांत इत्यत आह ।
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नियमतें
अर्थ - जाकारण सर्वही जे भाव कहिये पदार्थ आप सिवाय हैं, ते पर हैं, ऐसें जानिकरि 5 प्रत्याख्यान करे हैं, त्यागे हैं। तातें जो पर है यह जानना है सोही प्रत्याख्यान है। जानना । अपने ज्ञानमैं त्यागरूप अवस्था सोही प्रत्याख्यान है । अन्य किछू नाहीं है । टीका -- जानें यह ज्ञाताद्रव्य आत्मा भगवान् है, सो अन्यद्रव्यके स्वभावतें भये ऐसें जे अन्य समस्त परभाव, तिनिफूं अपने स्वभावभावकरि नाहीं व्यापनेकरि परपणाकरि जानि अर त्यागे है । तातें जो पहले जानें जान्या है सोही पीछे त्यागे है । अन्य तौ कोई त्यागनेवाला फ्र नाहीं है । ऐसें त्यागभाव आत्माही विषै निश्चय करि अर त्यागके समये प्रत्याख्यान करनेयोग्य 5 जे परभाव, तिनिकी उपाधिमात्र प्रवर्त्य जो त्यागका कर्तापणाका नाम ताके होतें भी परमार्थकरि 5
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