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5 एकमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रामद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनो कर्ममनोव चनकापश्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनस्त्राणि षोडश 5 व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्ययुद्धानि ।
अर्थ -- जीत्या है मोह ज्यानें ऐसें साधुके, जिसका मोह है सो क्षीण होय सत्तामै नाश होय, तिसकाल, जे निश्चयनयके जाननेवाले हैं, ते निश्चयकरि तिस साधूकूं क्षीणमोह ऐसा नाम कहे हैं।
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टीका - इस निश्चयस्तुतिविषै जो पूर्वोक्तविधानकरि मोहकूं तिरस्कार करि, जैसा कहा
तैसा ज्ञानस्वभावकरि अन्यद्रव्यर्ते अधिक आत्माका अनुभव करनेकरि, जितमोह भया, तार्के
5 जिसकाल अपने स्वभावभावकी भावनाका भलैप्रकार अवलम्बन करनेते मोहका सन्तानका अत्यंत 5 विनाश ऐसा होय, 'जो फेरि ताका उदय नाहीं होय है' ऐसा भावरूप मोह, जिसकाल क्षीण होय, तिसकाल भावकमोहका क्षय होतें, आत्माक विभावरूप Horror भी अभाव हो । ऐसें भाव्यभावकभावका अभाव करि एकपणा होतें, टंकोत्कीर्ण निश्चल परमात्मा प्राप्त हुवा 卐 संता 'क्षीणमोह जिन' ऐसा कहिये । यह तीसरी निश्चयस्तुति है ।
भावार्थ -- जिसका साधु पहले अपने बलतें उपशमभावकरि मोहकूं जीत्या पीछें जिसकाल 5 अपनी बडी सामर्थ्य मोहका सत्तामैंसूं नाशकरि, ज्ञानस्वरूप परमात्मा प्राप्त होय, तब क्षीण5 मोह जिन कहिये । इहां भी पूर्वे कहै तेलें ही मोक्षपदकूं पलटिकरि, तहां राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसन, स्पर्शन ये पद स्थापि फ्र सोलहसूत्र पढ़ने अर व्याख्यान करना अर इसही प्रकार उपदेश करि अन्य भी विचारणे । अब 卐 इहां इस निश्चयव्यवहाररूपस्तुती के अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं ।
शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चयान्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तन्त्रतः । स्तोत्रं निश्वयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवेन्नातस्तीर्थकरस्तव चरवलादेकत्वमात्मांगयोः ||२७|| 卐 अर्थ - कायकै अर आत्माकै व्यवहारनयकरि एकपणा है । वहरि निश्चयनयकरि एकपणा
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