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दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यं ।
तानि पुनर्जानीहि त्रीण्यप्यात्मानमेव निश्चयतः ॥ १६ ॥
आत्मख्यातिः — वेनैव हि भवेनात्मा साध्यं साधनं च स्यात्तवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाय परेषां व्यवहारेण 5.
" साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते । तानि पुनस्त्रीण्यपि परमार्थेनात्मैक एव वस्त्वंतराभावात् यथा देवदत्तस्य कस्यचित् ज्ञानं श्रद्धानमनु वरणं च देवदत्तस्य स्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव न वस्त्वंतरं तथात्मन्यप्यात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव न वस्त्वंतरं तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते स किल ।
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टीका - यह आत्मा जिसभात्रकरि साध्य तथा साधन होय, तिसही भावकरि नित्य उपासन करने योग्य है सेवने योग्य है । ऐसें आप विचारि बहुरि पर निक्कू व्यवहारकरि प्रतिपादन करे हैं, साधुपुरुषनिकरि दर्शनज्ञानचारित्र हैं ते सदा सेवनेयोग्य हैं । बहुरि परमार्थकरि देखिये तब
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तीनो हि एक आत्माही है, जातैं ए अन्य वस्तु नाहीं है आत्माहीके पर्याय हैं। जैसें कोई देवदत्तनाम पुरुषका ज्ञान, श्रद्धान, आचरण है, ते तितके स्वभावकूं नाहीं उल्लंघते वतें हैं । तातें ते देवदत्त पुरुषही है अन्य वस्तु नाहीं है । तैसें आत्माविषैभी आत्माका ज्ञान, श्रद्वान, आचरण हैं ते आत्माके स्वभावकूं नाहीं उल्लंघि वतें है । तातें आत्माही है अन्यत्रस्तु नाहीं है । तातें यह सिद्ध 5 15 भया, जो एक आत्माही सेवन करनेयोग्य है । यह आप आपही प्रकाशमान हो है ।
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भावार्थ --- दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीन कहे ते आत्माही के पर्याय हैं किछू न्यारे वस्तु नाहीं हैं । 5 तातै साधुपुरुषनिकूं एक आत्माहीका सेवन करना यह निश्चय है। बहुरि व्यवहारकरि अन्यकूं 45 यह ही उपदेश करना। आगे इसही अर्थका कलशरूप श्लोक कहे हैं ।
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दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयं 1
मेको मेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः ॥ १६॥
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अर्थ - साधुपुरुषकरि दर्शनज्ञानवारित्र हैं ते निरंतर सेवने योग्य हैं, बहुरि तीन हैं तौऊ निश्चयनयतें एक आत्माही जानूं ।
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