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योगलक्षण तो जीवद्रव्य है, सो तो पुद्गलद्रव्य होता न देखिये है । बहुरि नित्य अनुपयोग नट 5 लक्षण पुद्गलद्रव्य है, सो जीवद्रव्यरूप होता न देखिये है । जातें प्रकाशतमकी ज्यों उपयोग अनुप्रयोगकै सहवृत्तिका विरोध है । जड चेतन कदाचित् भी एक होय नाहीं । तातें तूं सर्वप्रकार 5 करि प्रसन्न होऊ, तेरा चित उज्ज्वल करी संवाधान होऊ । अपने ही द्रव्यकूं अपना अनुभवरूप 5 करी । ऐसा श्रीगुरुनिका उपदेश है ।
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अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन्, अनुभव भवभूतेः पार्श्ववतीं मुहूर्त्तम् । पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन, त्यजसि झगति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् || २३ ॥
भावार्थ - यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यकूं अपना माने है, ताकू उपदेश करी सावधान किया 5 है। जो सर्वज्ञने ऐसा देख्या है - जो जड वेतनद्रव्य सर्वथा न्यारे न्यारे हैं कदाचित् कोई प्रकार भी 5 एकरूप होय नाहीं । तातें हे अज्ञानी तूं परद्रव्यकूं एकपणाकरि मानना छोडि वृथा मानि करि 5 परि पडौ । अब इसही अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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फफफफफफफफफफ
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5 आत्मानुभवका ऐसा माहात्म्य है तो मिथ्यात्वका नाशकरि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना तो सुगम है । तातें श्रीगुरुनिनें यह ही प्रधानकरि उपदेश कीया है। आगे अप्रतिबुद्ध जो अज्ञानी जीव, 5 सो कहे है, ताका वचनकी पहली गाथा है । गाथा
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अर्थ - अयि ऐसा कोमल आमन्त्रण संबोधन अर्थ में अव्यय है, ताकरि कहे हैं, भाई ! तू
कथमपि कहिये कोई ही प्रकारकरि बड़ा कष्टकरि तथा मरिहूकरि तस्वनिका कौतुहली हुवा संता,
फ इस शरीरादि मूर्तद्रव्यका एक मुहूर्त दोय घडी पाडोसी होऊ, अर आत्माका अनुभव करी । 5
जाकर अपने आत्माकूं विलासरूप सर्व परद्रव्यतें न्यारा देखिकरि इस शरीरादिमूर्तिक पुगलद्रव्यफ करि सहित एकपणाका मोहकूं शोधही छोड़ेगा ।
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भावार्थ- जो यह आत्मा दोय घडी पुद्गलद्रव्यर्ते भिन्न अपना शुद्धस्वरूपकूं अनुभवै तामें लीन
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होय परीषह आये चि माहीं, तौ घातिकर्मका नाशकरि केवलज्ञान उपजाय मोक्षकूं प्राप्त होय ।