________________
फ
+
+
+
+
+
+
+
+
卐 है। कैसा है अज्ञानी जीव ? अत्यंत आच्छादित भया जो अपना स्वभावभाव तिसपणाकरि ॥
अस्त भया है समस्त विवेक कहिये भेदज्ञानरूप ज्योति जाका । बहुरि कैसा है? बडे अज्ञानकरि आपहीकरि विमोहित है हृदय जाका । बहुरि कैसा है ? भेदज्ञानविना अपना अर परका 卐" भेद नाहीं करी अर जे अपने स्वभाव नाहीं ऐसे विभाव, तिनिळू अपने करता है । जाते जे अपने
स्वभाव नाहीं ऐसें जे परभाव, तिनिके संयोगके वशतें अपना स्वभाव अत्यंत तिरोहित भयो है ' छिप्या है । कैसे हैं परभाव ? एककाल अनेकप्रकारका जो बंधनका उपाधि, तिसके सन्निधान ।
कहिये अतिनिकटता ताकरि प्राप्त भये हैं। जैसे स्फटिकपाषाणकै अनेकप्रकारके वर्णको निकटताकरि अनेकवर्णरूपपणा दीखे, स्फटिकका निजश्वेतनिर्मलभाव दीरले नाही, तैसें ही कर्मका प उपाधिकरि शुद्धस्वभाव आत्माका आच्छादित होय रह्या है, सो दीखै नाहों, इस प्रकारकरि " पुद्गलद्रव्यकू अपना करी माने है। ऐसें अज्ञानीः प्रतिबोधिये हैं। रे दुरालन् आत्माका घात करनहारा तूं परम अविवेककरि जैसें तृणसहित सुंदर आहारकू हस्ती आदि पशु खाय, तैसे खानेका स्वभावपणाकू छोडि छोडि । जो सर्वज्ञज्ञानकरि प्रगट कीया नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य, सो कैसें पुद्गलरूप भया ? जाकरि तूं यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ऐसा अनुभव है। कैसा है सर्वज्ञका ज्ञान ? दूरि किये है समस्त संदेह विपर्यय अनव्यवसाय जाने । बहुरि कैसा है ? विश्व कहिये समस्तवस्तु ताकै प्रकाशनेको एक अद्वितीय ज्योति है। ऐसें ज्ञानकरि दिखाया ।
है। बहुरि जो कदाचित् कोई प्रकार जैसे लूण तो जलरूप होय जाय है, जल तृणरूप होय जाय 卐 है। तैसें जीवद्रव्य तौ, पुद्गलद्रव्यरूप होय, अर पुद्रलद्रव्य जीवरूप होय, तो तेरी “पुद्गलद्रव्य' - मेरा है ऐसी" अनुभूति वने सो तौ कोई प्रकार भी द्रव्यस्वभाव पलटै नाहीं। सो ही दृष्टांतकं
स्पष्ट करे हैं। जैसे क्षारपणा है लक्षण जाका ऐसा तृण है सो तौ जलरूप होता देखिये है।' बहुरि द्रवत्व है लक्षण जाका ऐसा जल है सो लूणरूप होता देखिये है । जाते तृणका क्षारपणाकै अर जलका द्रवपणाकै सहवृत्तिका अविरोध है । यह होना विरोधरूप नाहीं है। तैसें नित्य उप
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
卐
!