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अर्थ - यह आत्मा प्रमाणदृष्टिकरि देखीये सब एकैकाल मेचक कहिये अनेक अवस्थारूप भी है समय अर अमेचक कहिये एक अवस्थारूप भी है । जातें याकै दर्शन-ज्ञान-वारित्रकरि तौ तीनपणा है। बहुरि आपकरि आपके एकपणा है ।
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भावार्थ — प्रमाणदृष्टि त्रिकालात्मक वस्तु द्रव्यपर्यायरूप देखिये है, तातें आत्मका भी युगपत् एकानेकस्वरूप देखना । आमैं नयविवक्षा कहे हैं।
दर्शनज्ञान चारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः ।
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एकोऽपि त्रिस्वभावत्वादव्यवहारेण मेचकः ॥ १७॥
अर्थ-व्यवहारदृष्टिकरि देखिये तब आत्मा एक है, तौऊ तीन स्वभावपणाकरि मेचक कहिये
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अनेकाकाररूप है । जातें दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीन भावनिकरि परिणमे है ।
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भावार्थ — शुद्धद्रव्यार्थिकनयकरि आत्मा एक है इस नयकूं प्रधानकरि कहिये तब नय गौण
भया, सो एक तीनरूप परिणमता कहना सोही व्यवहार भया, असत्यार्थ भी भया, ऐसें व्यव
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सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥ १८ ॥
अर्थ - परमार्थ जो शुद्धनिश्चयनय ताकरि देखिये तब प्रगट ज्ञायकज्योतिर्मात्रकरि आत्मा एक 5 स्वरूप है । जातैं याका शुद्धद्रव्यार्थिकनयकरि सर्वही अन्यद्रव्य के स्वभाव तथा अन्य निमित्ततें भये 5 विभाव, तिनिका दूर करनेरूप स्वभाव है, यातें अमेचक है, शुद्ध एकाकार है I
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भावार्थ - भेददृष्टिकं गौण कहि अभेददृष्टिकरि देखीये तब आत्मा एकाकार ही है, सो ही अमेचक है। आगे प्रमाणनयकरि मेचक अमेचक कह्या सो इस चिंताकू मेटि जैसे साध्यकी सिद्धि
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हारनयकरि दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामकरि मेचक कह्या है । अब परमार्थनयकरि कहे हैं । परमार्थेन तु व्यक्तन्नाद्दत्वज्योतिषैककः ।
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होय तैसें करना यह कहे हैं ।
आत्मचिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः ।
दर्शन वारित्रः सिद्धिर्न चान्यथा ॥ १६ ॥
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