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परिणमें तत्र कर्म न बंधे, संसारतें निवृत्ति होय, तार्तें पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयकूं गौणकरि अभूतार्थं असत्यार्थ कहिकरि शुद्धनिश्वयनयकं सत्यार्थ कहि आलंबन पकडाया है, वस्तुस्वरूपकी 5 प्राप्ति भयेपीछें याका आलंबन नाहीं है । ऐसा मति जानो, जो शुद्धनयकूं सत्यार्थ का सो अशुद्ध सर्वथा ही असत्यार्थ है । ऐसें माने, वेदान्तमतवाले संसारकुं सर्वथा अवस्तु माने हैं 5 तिनिकी सर्वथा एकान्तपक्ष आवै, तब मिथ्यात्व आये है, तब इस शुद्धयकाभी आलंबन तिन 5 मिथ्यादृष्टि होय है । तातें सर्वही नयनिकूं कथंचित्प्रकार सत्यार्थका श्रद्धा कीयेही सम्यम्हणि होरा है । ऐसें स्याद्वाद समझ जिनमतका सेवन करना मुख्य गौण कथन सुनि
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सर्वथा एकान्तपक्ष न पकडना । ऐसेंही इस गाथाका व्याख्यान टीकाकार कीया है। जो आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टि में बद्ध स्पृष्ट आदिरूप दीखे है, सो इस दृष्टि मैं तो सत्यार्थही है ।
5 परंतु शुद्धनयकी दृष्टिमैं बद्ध स्पृष्ट आदिरूप असत्यार्थ है । इस कथनमें स्याद्वाद जनाया है
ऐसें जानना ।
बहुरि ऐसें जानना, जो ए नय हैं ते श्रुतज्ञानप्रमाणके अंश हैं । सो श्रुतज्ञान है सो वस्तुकं क परोक्ष जना है, सो ए नयभी परोक्षही जनायें हैं। सो वद्धस्पृष्ट आदि पांच भाव रहित आत्मा शुद्धद्रव्यार्थिकका विषय चैतन्यशक्तिमात्र है । सो शक्ति तौ परोक्ष है ही । बहुरि याकी 5 व्यक्ती कुर्मसंयोगतें मतिश्रुति आदि ज्ञानरूप हैं ते कथंचित् अनुभवगोचर हैं ते प्रत्यक्षरूपभी कहिये हैं । अर संपूर्णज्ञान जो केवलज्ञान जो छद्मस्थके प्रत्यक्ष नाहीं तथापि यह शुद्धनय है सो आत्माका केवलज्ञानरूप परोक्ष जनावे है । जे इस नयकूं न जाणे तेतैं आत्माका पूर्णरूपका 557 ज्ञान, श्रद्धान होय नाहीं, तातें श्रीगुरु या शुद्धनयकूं प्रगटकरि दिखाया है । जो बद्ध स्पृष्ट आदि 5 पांच भावनितें रहित पूर्णज्ञानघनस्वभाव आत्माकं जाणि श्रद्धान करना पर्यायबुद्धि न रहना यह उपदेश है। तहां कोई कहै — ऐसा आत्मा प्रत्यक्ष तो दीखे नाहीं अर विनादीखे श्रद्धान करना 5 तौ झूठा श्रद्धा है। ताकूं कहिये दीखेहीका श्रद्धान करना यह तो नास्तिकमत है । जिनमतमें
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