Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे फलवत् । ततोऽयुक्तमुक्तम् -'नात्र बाधकप्रत्ययोस्ति' इति ; प्राक्प्रतिपादितप्रकारेणानेकबाधकप्रत्ययोपनिपातात् । प्रत्येकसमवेतायाश्च जातेरसिद्धत्वात् 'एकबुद्धिग्राह्यत्वात्' इत्याश्रयासिद्धो हेतुः । स्वरूपासिद्धश्च ; अबाधसादृश्यबोधाधिगम्यत्वेनकाकारप्रत्ययग्राह्यत्वस्यासिद्धेः । ब्राह्मणादिनिवृत्तिश्च परमार्थतो नैकरूपास्तीति साध्यविकलमुदाहरणम् ।।
एतेन यदुक्तमुद्द्योतकरेण-"गवादिष्वनुवृत्तिप्रत्ययः पिण्डादिव्यतिरिक्तानिमित्ताद्भवति विशेषकत्वान्नीलादिप्रत्ययवत् । तथा गोतोऽर्थान्तरं गोत्वं भिन्नप्रत्ययविषयत्वाद्पादिवत् तस्येति च
हा करते हैं। अतः मीमांसक ने जो कहा कि “सामान्य को एकत्व सिद्ध करने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है” सो गलत बात है, सामान्य को एकत्वरूप मानने में अनेक बाधक प्रमाण मौजूद हैं व्यक्ति व्यक्ति के प्रति समवेत रूप रहने वाले सामान्य की असिद्धि होने से भी एकाकार बुद्धि ग्राह्यत्व नामा हेतु आश्रयासिद्ध बन जाता है, इसका विवरण करते हैं - सामान्य एक रूप है, क्योंकि वह एकाकार बुद्धि ग्राह्य है, इस प्रकार के पूर्वोक्त अनुमान में सामान्य रूप जो पक्ष है वह प्रसिद्ध होने से एकाकार बुद्धि ग्राह्यत्व हेतु प्राश्रयासिद्ध नामा सदोष हेतु कहलाता है। एकाकार बुद्धि ग्राह्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध दोष युक्त भी है, अब इसीको बताते हैं- यह गो इसके समान है" इस प्रकार का सादृश्य ज्ञान होता हुआ देखा जाता है और सादृश्य अनेक में होता है, इस तरह के सादृश्य रूप अबाधित ज्ञान के द्वारा सामान्य ग्रहण होता है अतः सामान्य में एकाकार बुद्धि ग्राह्यपना असिद्ध ही हो जाता है। सामान्य को एकरूप सिद्ध करने के लिये मीमांसक ने नत्र समास युक्त अब्राह्मणत्व आदि वाक्यों में जैसे ब्राह्मणादि की निवृत्ति हो जाती है इत्यादि उदाहरण दिया था वह भी साध्य से रहित है, वह ब्राह्मणादि का प्रभाव परमार्थतः एक रूप नहीं है, अर्थात् यह क्षत्रिय जाति का है ब्राह्मण नहीं है अथवा यह वैश्य जाति का है ब्राह्मण नहीं है इत्यादि रूप से अभाव भी अनेक प्रकार का हुआ करता है, एक प्रकार का नहीं जिससे कि वह सामान्य को एक रूप सिद्ध करने के लिये दृष्टान्त बन सके ।
मीमांसक के मीमांसाश्लोक वात्तिक ग्रन्थ के उपर्युक्त अनुमान वाक्यों के खण्डित होने से हो नैयायिक के उद्योतकर रचित न्याय वार्तिक ग्रन्थ के अनुमान वाक्यों का खण्डन हुआ समझना चाहिये, उद्योतकर का अनुमान है कि शबल आदि गो व्यक्तियों में जो अनुवृत्त प्रत्यय होता है वह उन गो व्यक्तियों से भिन्न अन्य किसी
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