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अघट्टनीय
अघट्टनीय त्रि. घट्ट के सं. कृ. का निषे संघर्षण रहित, संघट्टन के अयोग्य यं नपुं. प्र. वि., ए. व. न हज्जतीति अर्थ अघट्टनीयन्ति अत्थो ध. स. अ. 358; ता स्त्री भाव घात-प्रतिघात से रहित यं प्र. वि., ए. व. -
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अघट्टनीयताय अघं, विभ. अ. 66.
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अघट्टित त्रि. घट्टित का निषे, घात-प्रतिघात रहित, स्थिर, शान्त तो पु. प्र. वि. ए. व. अनेरितो अघट्टितो
अचलितो अकुळितो... समुदोति, महानि, 260. अघम्मिग पु०, भयङ्कर जङ्गली - जीव, भीषण वन्य पशु - गेहि तृ. वि., ब. व. - लुद्देहि वाळेहि अघम्मिगेहि च, जा. अ. 7.136 अघम्मिगेहीति अघावहेहि मिगेहि दुक्खावहेहि सुनखेहीति अत्थो, जा० अ० 7.136.
अघर त्रि.. घर का निषे, ब. स. गृहविहीन रा पु.. प्र. वि. ब. व. गेहं विक्किणित्वा अघरा हुत्वा, जा. अट्ठ. 6.84. अघसिगम त्रि. आकाशचारी, आकाश में गमन करने वाला मा पु. प्र. वि. ब. व. अधोमुखा अघसिगमा बली जवा, वि. व. 13; अघसिगमाति वेहासंगमा, वि. व. अट्ठ. 63.
अघापह त्रि. [ अघापह] पापों या द्वेषों का नाश करने वाला तरिंसु तं धम्ममघप्पहं यह अभि. प. मङ्गलगाथा 2: पाठा. अघप्पहं.
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अघावह त्रि.. दुःख या कष्ट को लानेवाला हेहि पु.. तृ. वि., ब.व. अघावहेहि मिगेहि, दुक्खावहेहि सुनखेहीति अत्थो, जा० अट्ठ 7.136.
अघावी त्रि.. दुःखपूर्ण दुःखाभिभूत, व्यथित, विपद्ग्रस्त, संकटापन्न वी पु०, प्र. वि., ए. व. नम्हि अट्ट व्यसनंगतो अधावी. सु. नि. 699; अधावीति दुक्खितो तेन च सो चेतसिकअयभूतेन अघावी, सु. नि. अड. 2.189; विनो ब.व. मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतदुक्खसमपिता दी. नि. 2111; अघाविनोति उप्पन्नदुक्खा, दी. नि. अट्ठ. 2.160.
अघोस त्रिघोस का निषे [ अघोष ] वे व्यञ्जन, जिनके उच्चारण में ध्वनि अव्यक्त रहती है, ध्वनिहीन निःशब्द, प्रत्येक व्यञ्जनवर्ग के प्रथम दो अक्षर तथा स एत्थ पञ्चसु वग्गेसु वग्गानं पठमा परा, वग्गानं दुतिया पिच सकारो च तथा परो, अव्यत्तनादयुत्तत्ता अघोसो ति पकासिता, क. व्या. (पृ.) 9. टि. यह पालि-व्याकरण का एक 9; महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक पद है, परसमञ्ञा पयोगे, क. व्या. 9; क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, तथा स, ये ग्यारह
अड्डरवत्थु
व्यञ्जन अघोषसञ्ज्ञक हैं, अव्यक्त नाद से युक्त होने के कारण ये अघोष कहे जाते हैं.
अङ्क पु., [अङ्क], शा. अ. गोद, बैठने के समय जांघ और नितम्ब के मिलने से बननेवाला एक कोण - विशेष, छाती, वक्षस्थल उच्छङ्गङ्गा तुभो पुगे, अभि. प. 276 हूं द्वि. वि., ए. व. इत्थियो नाम एकदिवसम्पि अङ्कं अवत्थरित्वा निपन्नसामिकम्हि हृदयं भिन्दितुं न सकोन्ति, जा. अट्ठ. 5.288; - सप्त, वि. ए. व. न. भिक्ख पत्तो अड्डे निक्खिपितब्बो चूळव, 232 ट्रेन सप्त वि. ए. व. दारके अङ्केनादाय वाणिजे उपसङ्कमन्ति, जा० अट्ठ. 2.105; ला. अ. लक्षण, चिह्न, अभिज्ञान कलो लग्ने लक्खे अङ्कोभिञाण-लक्खणं, चिह्न चापि, अभि. प. 55; उच्छ लक्खणे चाडो अभि. प. 1043.
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अङ्कित त्रि, अङ्केति का भू० क० कृ० [अङ्कित ], चिह्नित, अभिलक्षित, संकेतित, हस्ताक्षरित प्रतीकित, - नमकरानमन्तानं नियुत्ततम्हि क. व्या. 619; साहित्य में केवल स. उ. प. में ही प्राप्त कण्णक त्रि [अडितकर्णक] वह जिसका कान चिह्नित हो, कटे हुए या बिधे हुए कान वाला अथो अङ्कितकण्णकोति अथ स्वेव विद्धकण्णो छिद्दकण्णोति लम्बकण्णतं सन्धायाह, जा. अट्ठ. 2.154.
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अङ्कुर' पु० / नपुं., [अङ्कुर], जीवाणु, अंखुआ, अङ्कुर, बीज से निकली हुई पहली पत्ती रो प्र. वि. ए. क. ततो अङ्कुरो - उद्वहित्वा फलं ददेय्य, मि. प. 50, यं यदेव अवसिट्ठ होति अङ्कुरो वा पत्तं वा तथो वा थ. प. अ. 1.161 तं खणं येव बीजम्हा तुम्हा निक्खम्म अङ्कुरो, म. व 15.43; निब्बत्तनट्ठान नपुं, अङ्कुर या अंखुआ के बढ़ने या विकसित होने का स्थान नं प.वि., ए. व. अङ्कुरनिब्बत्तनद्वान मण्डूककण्टकेन विज्झित्वा पेसेसि जा. अड. 2.86 - वण्ण त्रि.. [अङ्कुरवर्ण] अङ्कुर जैसा रंग, अंबुआ जैसा वर्ण अम्बङ्कुरवण्णन्ति अम्बङ्कुरेन समानवण्णं, ध. स. अट्ठ 350. अड्ड पु. [ अक्रूर] उपसागर तथा देवगब्भा (देवगर्भा) से उत्पन्न दसवें पुत्र का नाम, एक राजकुमार का नाम देवगब्भाय... दसमो अटुरो नाम अहोसि, जा. अड. 4.72 अङ्कुरो इदमब्रवि, पे. व. 323; देसनावसाने अङ्कुरो च इन्दको थ सोतापत्तिफले पतिद्वहिंस, ध. प. अ. 2.127. अङ्कुरपेतवत्थु नपुं. पे. व. के उरगवग्ग के अन्त, एक खण्ड का शीर्षक, पे. व. 114-119. अङ्कुरवत्थु नपुं, ध. प. की अट्ठ की एक कथा का शीर्षक,
ध. प. अट्ठ. 2.327-28.
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