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तीर्थोत्पत्ति का समय धवलाकार ने तिलोयपण्णत्ती की एतद्विषयक गाथा से पर्याप्त साम्य रखने वाली निम्नलिखित गाथा द्वारा श्रावण कृष्णा प्रतिपदा बताया है, जो प्रभु महावीर को केवलज्ञान होने की तिथि से ६६ दिन पश्चात् का ठहरता है :
वासस्स पढममासे, पढमे पक्खम्हि सावणे बहले। पाडिवद-पुव्व-दिवसे, तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि ।।५६।।'
धवलाकार के प्रशिष्य प्राचार्य गुणभद्र ने अपने ग्रन्थ उत्तर पुराण में वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्न में ज़म्भिका ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के तट पर अवस्थित मनोहर नामक वन में बेले की तपस्या से सालवृक्ष के नीचे एक शिला पर विराजमान वीर प्रभु को केवलज्ञान की उपलब्धि का उल्लेख किया है। तत्काल चार प्रकार के देवों के साथ इन्द्र के प्रागमन, समवसरण की रचना, इन्द्र द्वारा इन्द्रभूति गौतम के लाये जाने, शंकासमाधान के पश्चात् इन्द्रभूति के दीक्षित होने, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्वाह्न में प्रभु द्वारा प्रर्षतः द्वादशांगी के उपदेश के अनन्तर इन्द्रभूति द्वारा रात्रि के पूर्व भाग में अंगों तथा पश्चिम भाग में पूर्वो की रचना किये जाने का विवरण तो उत्तर पुराण में दिया गया है पर यह नहीं बताया गया है कि समवसरण की रचना- किस स्थान पर की गई, किस स्थान पर प्रभु ने धर्मतीर्थ की स्थापना की तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति और तीर्थस्थापन के बीच ६६ दिन का व्यवधान किस कारण रहा। उत्तर पुराण के ७४ वें पर्व के श्लोक संख्या ३६६ का अंतिम चरण-"श्रावणे बहुले तिथौ" को यदि हटा दिया जाय तो इस पूरे विवरण से स्पष्टतः यही प्रकट होगा कि वैशाख शुक्ला १० को ऋजुकूला नदी के तट पर ही समवसरण की रचना से लेकर इन्द्रभूति द्वारा द्वादशांगी की प्रतिरचना तक की समस्त घटनायें घटित हुई।
इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के सर्वाधिक मान्य ग्रन्य तिलोयपम्पत्ती और षटखण्डागम की धवला टीका में वैशाख शुक्ला १० के दिन भगवान महावीर को ऋजुकूला नदी के तट पर अवस्थित जृम्भिका ग्राम के बाहर केवलज्ञान की उपलब्धि का और उससे ६६ दिन पश्चात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पंचशेलपुर (राजगृह) के विपुलाचल पर उनके द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन का तो उल्लेख किया गया है पर इस प्रकार का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि भगवान् जृम्भिका ग्राम से राजगृह के विपुलाचल पर कब, कितने समय पश्चात् तथा किस प्रकार पधारे और जब ऋजुकूला नदी के तट पर ही प्रभु को केवलज्ञान की उपलब्धि हो चुकी थी तो उस कैवल्योपलब्धि के स्थल पर ही समवसरण की रचना किस कारण नहीं की गई ? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समुचित समाधान न किये जाने की दशा में जैनेतर एवं निष्पक्ष विद्वानों को अनेक प्रकार के ऊहापोह
१ वही, भाग १, पृष्ठ ६४ २ उत्तरपुराण, पर्व ७४, श्लोक ३४८ - ३७१
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