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हो जिन विज्ञ पाठकों ने जागरूकता दिखाई है, वे वस्तुतः साधुवाद के पात्र हैं। यदि प्रत्येक जिनशासनानुयायी में इस प्रकार की जागरूकता उत्पन्न हो जाय तो आज जैनागमों के सम्बन्ध में तथाकथित सुधारवादियों द्वारा जो विषेला प्रचार किया जा रहा है, उसके कुप्रभाव और कुप्रवाह को रोका जा सकता है।
आलेख्यमान ग्रन्थमाला के प्रस्तुत द्वितीय भाग का आलेखन समाप्त करते करते प्रथम भाग से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण एवं विचारणीय प्रश्न हमारे सम्मुख उपस्थित हुअा है । विज्ञ पाठकों, विद्वानों एवं शोधाथियों के विचारार्थ उसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है ।
यह एक शाश्वत नियम है कि सभी तीर्थकर केवलज्ञान की उपलब्धि होते ही उसी दिन धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं । हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से कभी कभी इस नियम के अपवाद के उदाहरण भी श्वेताम्बर परम्परा के प्रागम एवं प्रागमेतर साहित्य में उपलब्ध होते हैं। प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल हुण्डावसपिणी माना गया है, जिसके प्रभाव से भगवान महावीर ने, जिस दिन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उसी दिन धर्मतीर्थ का प्रवर्तन नहीं किया। श्वेताम्बर परम्परा के पागम एवं सर्वमान्य प्रागमेतर साहित्य में इसे १० पाश्चर्यों में से एक आश्चर्य मानते हुए यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि प्रभू महावीर ने प्रथम समवसरण के समय अपनी पहली देशना हृदयंगम कर व्रत ग्रहगा करने वाले भव्य प्राणी की अनुपस्थिति के कारण केवल ज्ञान की प्राप्ति के दूसरे दिन धर्मतीर्थ की स्थापना की।
केवलज्ञान की उपलब्धि तथा तीर्थप्रवर्तन के बीच काल का व्यवधान तो दोनों परम्परागों में माना गया है परन्तु यह व्यवधान जहां श्वेताम्बर परम्परा में एक दिन का माना गया है वहां दिगम्बर परम्परा के मण्डलाचार्य धर्मचन्द्रकृत 'गौतमचरित्र' नामक ग्रन्थ में' केवल ३ घण्टों और शेष सभी ग्रन्थों में ६६ दिनों के व्यवधान का उल्लेख उपलब्ध होता है।
श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उल्लेख है कि साढे बारह वर्ष की कठोर साधना के पश्चात् एक दिन महावीर छट्ठ भक्त की तपस्या किये हुए ऋजुबालुका नदी के तट पर अवस्थित ज भिका ग्राम के बाहर श्यामाक नामक गाथापति के क्षेत्र में शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका पासन से प्रातापन ले रहे थे, उस समय भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुग्रा । तत्काल देवेन्द्र की प्राज्ञा से समवसरण की रचना की गई और प्रभु ने वहां प्रथम देशना दी। पर वहां ऐसा कोई भव्य व्यक्ति विद्यमान नहीं था जो व्रतों को ग्रहण कर सकता। अतः रात्रि में ही
भिका ग्राम से विहार कर प्रभु पावापुरी के प्रानन्दोद्यान में पधारे। वहां देवों ने समवसरण की रचना की। गौतमादि के उपस्थित होने पर प्रभु ने देशना दी और धर्मतीर्थ की स्थापना की। ' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. २८, २६
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