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थे । उनमें से कोई कहता कि जल ही सर्व श्रेष्ठ है, कोई कहता अग्नि ही सर्व श्रेष्ठ है. और कोई पृथ्वी को ही सर्व प्रष्ट कहता था।"पृ. ५५
"ईसा के जन्म से पन्द्रहसौ वर्ष पहले का एक ताम्र पत्र पाया गया है, जिसमें लिखा है कि यूफोटिश नदी के किनारे मिटान्नि नामक जाति के राजा गण, वैदिक. वरुण, मित्र और इन्द्र आदि देवताओं की पूजा करते थे। इस देश के राजाओं के नाम भी भारतीय थे-उनमें एक राजा का नाम था 'दसरथ' । पृ०६६
बैदिकदेवता वेदमें जिन देवताओं की स्तुति की गई है और यज्ञों में जिनके लिये हवि की जाती है. वे इस विश्व की दिव्य शक्तियां है. जो एक जीती जागती सत्ता के रूप में वर्णन की गई है। उनका वर्णन अनेक देवताओं के रूप में है और एक देवता के रूप में भी है। ऐसी परिस्थिति में एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे देवसा क्या हैं ? अग्नि जहां एक ओर अपने दृश्य मान रूप में अरणियों से उत्पन्न होने वाला, सूर्य की तरह चमकने वाला, और धुएं के झड़े वाला (धूमकेतु) बतलाया है। वहां दूसरी ओर विद्वान, सर्वज्ञ जो उत्पन्न हुआ है उस सबके जानने वाला ( जातिवेदस ) कर्मों के जाननेवाला और फल दाता वर्णन किया गया है। यह जो कुछ वर्णन किया गया है उससे न तो उसका दृश्यमान रूप त्यागा जा सकता है, और न ही उसकी वह सर्वज्ञता और फलदात्रिता त्यागी जा सकती है, जिसने उसको मनुष्य की दृष्टि में देवता का रूप दिया है। इन दोनों बातों को दृष्टि में रख कर स्वामी शंकराचार्य यह सिद्धान्त बनाने हैं