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दफा ४८-५१ ]
विवाह में वर्जित सपिण्ड
रामचन्द्र कृष्णजी जोशी बनाम गोपाल 10 Bom. L. R. 948. वह लड़की अपने पिता और नानाकी सपिण्ड भी न हो । महर्षि मनुने कहा है अ० ३-५ सपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः सा प्रशस्ताद्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।
कुल्लूक भट्टने इस श्लोकका अर्थ ऐसा किया है कि जो लड़की अपनी माताकी सपिण्ड तथा गोत्रकी न हो और पिताके गोत्रकी न हो 'च' से मतलब यह है कि पिताके सपिण्डकी भी न हो ऐसी लड़कीके साथ द्विज विवाह करे । अर्थात् अपने और नानाके गोत्र तथा सपिण्डकी न हो वही लड़की द्विजों में विवाहने योग्य है ।
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दफा ५० शूद्रोंके विषय में
गोत्र और प्रवरका नियम नहा है
शूद्रोंके विषयमें कहा गया है कि वह सपिण्ड कन्याके साथ विवाह नहीं कर सकता; देखो भविष्य पुराण
समान गोत्रप्रवरं शूद्रामृङ्खान दोषभाक् शूद्रस्याच्छूद्रजातौ च सपिण्डे दोषभाग्भवेत् ।
यदि शूद्र एकही गोत्र और प्रवरकी कन्याके साथ विवाह करले तो दोष नहीं है परन्तु वह सपिण्ड कन्याके साथ विवाह नहीं कर सकता । दफा ५१ विवाह में सपिण्ड सम्बन्ध कहां तक माना जाता है १ याज्ञ०-- पंचमात्सप्तमादूर्ध्वं मातृतः पितृ तस्तथा ।
सब जातियों से यह नियम लागू होता है कि माताकी तरफसे पांचवीं और पिताकी तरफ से सातवीं पीढ़ीके बाद सपिण्डका सम्बन्ध टूट जाता है । विज्ञानेश्वरने इसकी व्याख्या साफ साफ नहीं की । वह कहते हैं कि एकही शरीरका अंश परस्पर मौजूद होनेसे सपिण्ड सम्बन्ध पैदा होता है यह कहा है कि सपिण्डता माता और पितासे पांचवीं और सातवीं पीढ़ीमें निवृत्त हो जाती है । गौतम, मनु, विश्वरूप, वसिष्ठ, स्मृतितत्व आदिमें भी यही बात मानी गयी है ।
२ मिताक्षरा -
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मातृतोमातुः सन्तानेपञ्चामादूर्ध्वं पितृतःसन्ताने सप्तमादूर्ध्वं सापिण्ड्यं निवर्तत ।