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' 'धार्मिक और नगती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
१ मूर्ति तोड़ डाली गयी--अघट पूजा जारी रही---नई मूर्तिकी स्थापना हुई-भिन्न भिन्न किस्मकी मूर्तियां स्थापित हुई--कालीकान्त चटरजी बनाम सुरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती 41 C, L. J. 128; A. I. R. 1925 Cal. 648.
- किसी पुजारीको यह अधिकार नहीं है कि देव मूर्ति जो पुगनी हो उसे हटाकर नई देवमूर्ति स्थापित कर दे क्योंकि देवमूर्ति का हटाना पूजा का काम नहीं समझा जाता, देखो--1923 A I. R. 169 Mad. दफा ८३६ घरेलू धर्मादा
जब कोई जायदाद किसीको बतौर दान या पुरस्कारके दे दी गई हो और उस दान या पुरस्कारकी वास्तविकता घरेलू क्रिस्मकीहोतो वह धार्मिक धर्मादा नहीं कहा जा सकता, उदाहरण-जैसे महेशने धर्मके ख्यालसे कोई जायदाद उमाकान्त और उमादत्तको दी, दोनों ब्राह्मण हैं शर्त यहकी कि वे दोनों जायदादका इन्तकाल नहीं कर सकेंगे और उस जायदादसे स्वयं और उनकी संतान तथा उनके वारिस लाभ उठाते रहें । उमाकान्त और उमादत्त दोनों उस जायदादको बिना किसीकी शिरकतके प्राप्त करेंगे और उनको अधिकार होगा कि यदि वे चाहें तो जायदादका इन्तकाल कर दें या जो चाहें करें, देखो-अन्नाथा बनाम नागापथु 4 Mad. 200.
गोविंद बनाम गोमती 30 All. 288. वाले मामलेमें एक श्रादमीने वसीयतकी, वसीयतकी कुछ जायदादमें उसने अपना हक़ अपनी ज़िन्दगी भरके लिये रक्षित रखा और यह शर्त लिखी कि मेरे मरने के बाद इस जायदादकी आमदनी मेरी बेटीको उसके जीवन भर मिलती रहे और बेटीके भर जाने के बाद अमुक मन्दिरकी सेवामें लगा दी जाय, माना गया कि ऐसी शर्तका दान जायज़ है।
मठ
दफा ८३७ मठ
‘मठ' एक धार्मिक स्थान है जहां हिन्दू धर्मकी शिक्षा हुआ करती है उसका एक अध्यक्ष होता है जो यदि ब्राह्मण हो तो महन्त, स्वामी, गोस्वामी या संयाली आदि कहलाता है अगर शूद्र हो तो पगदसी या जीर कहलाता है कोई धर्मोपदेष्टा अपने शिष्यों को एकत्र कर धर्मोपदेश करता है और बहुतेरे धर्मात्मा धर्म प्रचारार्थ अपनी जायदाद अर्पण करदेते हैं यही 'मठ'की बुनियाद है मठकी जायदादके वारिस उस धर्मोपदेष्टा गुरुके शिष्य नहीं होते बल्कि