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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ स प्रकरणे
यह है कि - महन्तको मौज़ाका मुक़र्ररी पट्टा देनेका अधिकार था या नहीं ? कानूनने इतनी बात तय करदी है कि देवोत्तर जायदादका महन्त इन्तक़ाल कर सकता है, जिसतरह नाबालिग वारिसके लिये उसका मेनेजर जायज़ ज़रूरत ही में वारिसके लाभके लिये इन्तक़ाल कर सकता है यह अधिकार सीमाबद्ध है, देखो - 14 Ben. L. R. 450; 2 I . A. 145; 2 Cal. 341; 4 I . A. 52. जबकि दूसरा कोई ज़रिया या सरमाया न हो, मन्दिरकी मरम्मत या तकमीलके लिये देवोत्तर जायदाद मुक़र्ररी पट्टेमें दी जा सकती है लेकिन इसका आम क़ायदा शिवेश्वरीदेवी बनाम मथुरानाथ आचार्य 13M.I.A.270. मैं बताया गया है कि यदि वैसी ज़रूरत न हो तो देवोत्तर जायदाद इन्तकाल करने के अतिरिक्त, भिन्न भिन्न प्रकारकी दूसरी आमदनीसे उसे पूरा किया जाय ऐसा न करने से महन्त अपने कर्तव्यसे च्युत समझा जायगा उसका यह कहना मानने योग्य नहीं होगा कि ख़ास तौरके सम्बन्धोंसे ज़रूरत पैदा होगई थीं, इस मुक़द्दमे में पट्टा उचित साबित है इसलिये पट्टादेने वालेके जीवनकाल तक या उसके अधिकारी बने रहने तक वह जायज़ माना जायगा ।
दफा ८६७ बार सुबूत
जब देवोत्तर जायदादका इन्तक़ाल किया गया हो, तो जायदाद के खरीदार या जिसके नाम इन्तक़ाल किया गया है उसपर इस बात के साबित करनेका बोझ है कि वह अच्छी तरहसे साबित करे कि वास्तवमें क़ानूनी वैसी ज़रूरत थी, या उसने ठीक ठीक और नेकनीयतीसे वैसी ज़रूरत होने की योग्य तलाश कर ली थी और खुद उसे इतमीनान काफ़ी हो गया था कि दरअसल वैसी ज़रूरत है । यानी जिस तरहपर नाबालिग़ वारिसके मेनेजर के द्वारा इन्तक़ाल करनेमें खरीदारको साबित करना पड़ता है उसी तरह देवोत्तर जायदाद के खरीदारको साबित करना पड़ेगा, देखो - 2 Cal. 841-351; 4 I. A. 52 देखो इस किताबकी दफा ३४२.
दफा ८६८ इन्तक़ालके नियम
अगर कोई रवाज या धर्मादेकी कोई शर्त वाधक न हो तो साधारण नियम यह है कि जिसके क़ब्ज़े में धर्मादेकी जायदाद हो उसे ऐसा अधिकार नहीं है कि वह अपने प्रबन्ध, ट्रस्ट, ट्रस्टी या मेनेजरकी नियुक्ति और मंदिर के अन्य धर्मादे तथा कामके अधिकारको दूसरे किसीके हक़में इन्तक़ाल करदे, देखो - 27 I. A 69.
अगर ऐसा रवाज साबित किया जाता हो कि इन्तक़ाल करने वाले के आर्थिक लाभके लिये इन्तक़ाल किया जा सकता है तो ऐसा रवाज अदालत नहीं मानेगी, देखो - 4 I. A. 76; 1 Mad. 235; 4 Mad. 391; 6 Mad.