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विवाह
[दूसरा प्रकरण
का विवाह जायज़ हुआ । इस नज़ीरमें पूरे उस समय तक के पार्ष वचनों और नजीरोंका उल्लेख किया गया है देखो दफा ५७ अनुलोमज विवाह ।
अनुलोमज विवाहिता स्त्रीसे उत्पन्न पुत्रों और औरस पुत्रों के बीच जायदादके बटवारेका क्या नियम है यह बात देखो इसी ग्रन्थकी दफा ५१० बटवारा प्रकरण ।
प्रतिलोमज ( देखो दफा १ ) विवाहिता विधवाके सम्बन्धमें यह साफ तौर से तय हो चुका है कि वह विवाह हर तरह नाजायज़ है और उस से उत्पन्न पुत्रोंका कोई हक़ किसी तरहका नहीं रहेगा।
३--विधवा का दान कौन कर सकता है यह प्रश्न जटिल है। आप पहले सपिण्डकी बात समझले। एक जन्मसापिण्ड्य होता है दूसरा सापेक्ष्य सापिण्डय होता है । जन्मसापिण्ड्य जन्मसे पैदा होता है । बापके साथ कन्याका जन्मसापिड्य है । यह कभी टूट नहीं सकता । माताके साथ भी इसी तरह लड़की या लड़केका जन्मसापिण्ड्य है जो कभी टूट नहीं सकता यह सापिण्ड्यत्व दान नहीं दिया जा सकता । माता-पिता के शरीर के अंश जो पुत्र या पुत्रीमें आते हैं वे निकाले नहीं जा सकते न दिये जा सकते हैं यह जन्मसापिण्ड्य कहलाता है । सापेक्ष्यसापिण्ड्य स्त्रीका पतिके साथ होता है। सापेक्ष्यसापिण्ड्य, नैमित्तिक सम्बन्ध है । मिताक्षराका कहना है कि पति और पत्नी मिलकर एक पिण्ड बनाते हैं इसलिये उन दोनोंमें सापेक्ष्यसापिण्ड्य है। जब पति मर गया तब विधवाका पतिके घर वालों से सापिण्ड सम्बन्ध नहीं रह जाता।
पिता अपनी लड़कीके शरीरका दान पतिको करता है। वास्तवमें पिता ही का दूसरा रूप वह लड़की है ऐसा प्रमाण वेदके वचनसे मिलता है। दान शरीरका हुआ और जव पति मर गया तो दानकी वस्तु (विधवा ) पर पति के घर वालोंका विधवाके साथ सापिण्ड्य नहीं हो सकता । पति अपनी स्त्री को दान नहीं कर सकता कि उसका सापेक्ष्यसापिण्ड्य दूसरे को प्राप्त हो। पतिका आधा अङ्ग स्त्री बन जाती है। जबतक विधवा जीती है तब तक मानों पतिका श्रीश जीता रहता है। अझैश का मतलब शरीर से न समझिये वेद मन्त्रों द्वारा जो सापेक्ष्यसापिण्ड्य पति-पत्नीका विवाह कालमें बन जाता है उसका आधा भाग जीता रहता है। पिता और विधवाके पतिके घर वालों मेसे किसका नज़दीकी रिश्ता विधवामें रहता है यह बात विचारणीय है। जन्मसापिण्ड्यसे विधवाका रिश्ता पिताके साथ सन्निकट है । इसीलिये विधवा के विवाहमें उसके दानका अधिकार पिताको सबसे पहले होगा। पिताके न होनेपर उन लोगों को क्रमसे होगा जिन्हें उस विधवाके कन्या होनेकी दशामें होता।